ज़िन्दगी हर बार उलझती है धागों सी
सुलझाने में हम अक्सर सारे धागों को टूटने से बचाना चाहते हैं जो मुमकिन नहीं होता
और उलझनें विकराल रूप लेती जाती हैं ... किसी भी सुनामी से सबकुछ नहीं बचता ...
रश्मि प्रभा
उलझन-उलझन ज़िंदगी …
उलझन-उलझन ज़िंदगी… सुलझती ही नहीं… सुलझाने के चक्कर में हम और भी उलझते जाते हैं…एक धागा सुलझाते हैं कि कोई दूसरा उलझ जाता है. कभी हांफते, कभी थक जाते … हम सभी अपनी उलझनों को सुलझा लेना चाहते हैं, पर ये नहीं सोचना चाहते कि ये उलझन पैदा कहाँ से हुई… सिरा ही तो नहीं मिलता…
कभी-कभी लगता है कि मैं सबसे अधिक परेशान हूँ, तो कभी दूसरों की मुश्किलें खुद से ज्यादा बड़ी लगती हैं. मैं सोचती हूँ कि मुझे अफ़सोस नहीं होना चाहिए क्योंकि इस उलझन को मैंने खुद चुना था… ‘उलटी धारा में तैरेंगे, फिर चाहे तो बह जाएँ या डूब जाएँ’, ये जिद अपनी ही थी…पर क्या सच में?…ये हमारी पसंद थी या मजबूरी? अगर विकल्प होते तो क्या हम वही चुनते, या कुछ और?
हमारी ज़िंदगी के फैसले लेने में विकल्पों की कमी क्या सिर्फ मुझे ही सालती है या और लोगों को भी? क्या मेरे पास सारे संसाधन होते तो मैं वही करती, जो अभी कर रही हूँ? या कुछ और करती. बहुत कोशिश करने पर भी समझ में नहीं आता, पर, अब समझ में आकर भी क्या करेगा? जब समझ में आना चाहिए था, तब पहली बात तो विकल्प ही नहीं थे, और जो थोड़े विकल्प थे भी, उनमें से क्या चुनें, इसकी समझ नहीं थी.
हम सभी की ज़िंदगी में एक समय ऐसा आता है, जब रूककर खुद को, अपनी ज़िंदगी को, समझने की ज़रूरत महसूस होती है. ऐसा तब होता है, जब हम अपने बहुत करीब होते हैं… हममें से सभी खुद से बातें करते होंगे, खुद को समझने की कोशिश करते होंगे, पर समझ में कभी नहीं आता. कोई भी अतीत के बारे में परिकल्पना का सहारा लेकर किसी परिणाम पर नहीं पहुँच सकता कि यूँ होता तो क्या होता, वैसा होता तो क्या होता…हम आज जो हैं जैसे हैं, वैसे होते या कुछ और? बहुत सी बातों पर हम पछताते हैं, बहुत सी बातों पर राहत की साँस लेते हैं, पर, हम उसे बदल नहीं सकते और ना ही ये जान सकते हैं कि अगर वैसा ना होता जैसा कि हुआ है, तो कैसा होता? संभाविता की ये बातें आदमी को हमेशा तंग करती रही हैं और करती रहेंगी…
हम कभी ये नहीं जान सकते कि अमुक समय पर अगर हम वो निर्णय ना लेते, तो परिणाम क्या होता…? हम बस अपनी उलझनों में उलझे रहेंगे …इन उलझनों को हम सुलझा पायें या नहीं, पर कोशिश करते ही रहेंगे… हो सकता है कि हम आने वाली पीढ़ी को कुछ बेहतर विकल्प दे पायें या कोई अनचाहा निर्णय लेने से रोक पायें.
आराधना
http://draradhana.wordpress.com/
उलझन-उलझन ज़िंदगी… सुलझती ही नहीं…
ReplyDeleteबिल्कुल सही! बेहद सुन्दर! शानदार प्रस्तुती!
बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति ........
ReplyDeleteकहते है कि अगर
जिन्दगी कि राह है आसन
तो संभलना यारो
आज तक बिन रूकावटो के
कोई राह बनी ही नहीं है ....
उलझन ....सोच ...अभिव्यक्ति जीवन में
एक म्रग्दर्शन सी होती है ..जिस पर चल के हर इंसान अपनी मंजिल
को प्राप्त करता है|
‘उलटी धारा में तैरेंगे, फिर चाहे तो बह जाएँ या डूब जाएँ’, ये जिद अपनी ही थी…पर क्या सच में?
ReplyDeleteसही बात है अपने हाथ मे कुछ नही होता मजबूरियाँ या फिर चुनौती ---- डोर तो उसके हाथ मे है जो सिरा पकडा दिया पकड कर चल पडे। उलझन--- उलझन --उलझन--- यही तो ज़िन्दगी है। शुभकामनायें।
हम सभी की ज़िंदगी में एक समय ऐसा आता है, जब रूककर खुद को, अपनी ज़िंदगी को, समझने की ज़रूरत महसूस होती है. ऐसा तब होता है, जब हम अपने बहुत करीब होते हैं
ReplyDeletebahut achchi bat kahi hai aapne..
hai re uljhan!!
ReplyDeletewaise ye sach hai..ham bimar padte hain to lagta hai, main hi kyon...par jab hospital pahuchte hain to pata chalta hai....yaar hame to kuchh nahi hua...!!