नर्क के द्वार पर
संस्कारों की बातें !
कौन सुनेगा?
क्यूँ सुनेगा?
नर्क नर्क ही रहेगा !
स्वर्ग ही होना था
तो नर्क के द्वार खुलते ही क्यूँ?!
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बड़की भौजी
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उसका ब्याह तब हुआ
जब उसे मालूम भी नहीं था
कि वो एक औरत है,
लाल साड़ी में लिपटी ससुराल आयी
वापस गयी बरसों बाद
जैसे यहीं नाल गड़ी हो उसकी,
... ...
उसे कोई शिकायत नहीं थी
वो रोज़ सुबह उठकर नन्हे हाथों से
जांते में गेहूँ डालती
और अपनी ख्वाहिशों को
पिस-पिसकर ज़मीन पर गिरते देखती,
तवे पर पड़ी रोटी
जब फूलकर गुब्बारा हो जाती
तो उसके चेहरे पर चमक आ जाती थी,
... ...
वो हँसती रहती
मानो सारी परेशानियों को
सूप से पछोरकर उड़ा दिया हो
दुखों को बुहार दिया हो
और चिंताओं को फेंक दिया हो
चावल के कंकड़ों के साथ बीनकर,
... ...
इच्छाएँ, आशाएँ, आकांक्षाएँ क्या होती हैं?
उसे नहीं पता
वो कुछ नहीं सोचती
और ना कुछ कहती अपने बारे में,
अपनी छोटी सी दुनिया में खुश,
निश्चिंत, खिलंदड़ और हँसमुख बड़की भौजी को
चूल्हे के धुँए की आड़ में
अपने आँसुओं को छिपाते पकड़ा
"लकड़िया ओद हौ, धुअँठैले"
बचपने में ब्याह
खेल-खेल में
तीन लड़कियाँ हो गयीं हैं उसकी... ...
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मेरा होना या ना होना
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मैं तभी भली थी
जब नहीं था मालूम मुझे
कि मेरे होने से
कुछ फर्क पड़ता है दुनिया को
कि मेरा होना, नहीं है
सिर्फ औरों के लिए
अपने लिए भी है.
मैं जी रही थी
अपने कड़वे अतीत,
कुछ सुन्दर यादों,
कुछ लिजलिजे अनुभवों के साथ
चल रही थी
सदियों से मेरे लिए बनायी गयी राह पर
बस चल रही थी ...
रास्ते में मिले कुछ अपने जैसे लोग
पढ़ने को मिलीं कुछ किताबें
कुछ बहसें , कुछ तर्क-वितर्क
और अचानक ...
अपने होने का एहसास हुआ
अब ...
मैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे होने की राह में रुकावट है...
हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो है
पर, नहीं हो पा रही है अपनी सी
हर वो किताब ...
हर वो विचार ...
हर वो तर्क ...
दोषी है उन औरतों का
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया ..
इच्छाएँ, आशाएँ, आकांक्षाएँ क्या होती हैं?
ReplyDeleteउसे नहीं पता
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
दोनो ही रचनायें लाजवाब और सोचने को मजबूर करती हैं और स्त्री ह्रदय की पीडा का बेहद मार्मिक और सटीक चित्रण किया है।
ReplyDeleteपहले भी पढ़ी हैं मुक्ति की ये रचनाये ..बेहतरीन हैं.
ReplyDeleteहर वो औरत परेशान है
ReplyDeleteजो जान चुकी है कि वो है
पर, नहीं हो पा रही है अपनी सी
हर वो किताब ...
हर वो विचार ...
हर वो तर्क ...
दोषी है उन औरतों का
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया ....
बहुत पहले इसी तरह सोचना सुना था किसी का कि बहुत मुश्किल है उस तरह जीना जो आप भीतर से हो नहीं ...मगर फिर उससे ही सुना कि जी लिया जता है उस तरह भी ख़ुशी ख़ुशी जो आप होते नहीं हो ...शायद जिंदगी सब कुछ सिखा देती है ...
मार्मिक रचनाएँ ..!
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ReplyDeleteमैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे होने की राह में रुकावट है...
हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो है
पर, नहीं हो पा रही है अपनी सी
han ye baat har aurat ke man hoti hai kuchh samjh kar khamosh rah jati hain aur kuchh apne pankh pasarne ki sonchti hai par unhe .......katar diya jata hai ,,,,,
दोषी है उन औरतों का
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया ..
jab ye samjh antaraatma se sawal karti ahi to bahut kuchh apna hi astitav se tuta futa sa nazar aata hai kyonki use wo dikhaya hi nahi gaya jo wo hai..........didi bahut hi marmik rachna hai ..........kash aaj har nari apne vistar me sahyog pa le........
प्रशंसनीय और भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
ReplyDeletebahut hi sundar, sarthak rachna ke
ReplyDeleteliye dil se badhai
मैं तभी भली थी
ReplyDeleteजब नहीं था मालूम मुझे
कि मेरे होने से
कुछ फर्क पड़ता है दुनिया को
कितना बडी बात कह दी अराधना ने सही बात है जब तक हम औरों क्3ए लिये जीते हैं तब तक अच्छे जिस दिन अपने लिये सोच लिया तो हम जैसा बुरा कोई नही। ाराधना जी को बधाई इस रचना के लिये।
कृ्प्या इस ब्लाग को भी देखें
http://veeranchalgatha.blogspot.com/
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ReplyDeleteरश्मि जी की छोटी कविता बड़ी सारगर्भित ,!! सुन्दर ..
ReplyDeleteबडकी भौजी , मेरा होना ना होना - नारी की स्तिथि और बाल विवाह का दर्द है ..बहुत सुन्दर तरीके से अराधना जी ने इसे ब्यान किया है कविता में ..वटवृक्ष को मेरा धन्यवाद - इन सुन्दर रचनाओं से रूबरू करवाने के लिए...
दोनो ही रचनायें लाजवाब और बेहतरीन हैं.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
ReplyDeleteस्त्री ह्रदय की पीडा का बेहद मार्मिक चित्रण,धन्यवाद !
ReplyDeleteachchhee kavitaa, sundar shabd aur maarmik abhivyakti .....achchhaa lagaa padhakar !
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कवितायेँ, ज़मीन से जूडी हुई |
ReplyDeleteबड़की भौजी देख कर आ गया। निराश नहीं हुआ। आभार।
ReplyDeleteवटवृक्ष को धन्यवाद मेरी कवितायें यहाँ प्रकाशित करके उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों के पास पहुँचाने के लिए.
ReplyDeleteवो रोज़ सुबह उठकर नन्हे हाथों से
ReplyDeleteजांते में गेहूँ डालती
और अपनी ख्वाहिशों को
पिस-पिसकर ज़मीन पर गिरते देखती...
मनोभाव को इतनी गहराई के साथ प्रस्तुत करना...
आराधना जी के लेखन की विशेषता है...
हर रचना बहुत अच्छी लगी.