दुःख की सरहदों पर
अपने-अपने दर्द को लिए
रह जाती है
- आंखों की शून्यता !
- जहाँ
देश विभाजित नहीं होता,
न ही जाति,धर्म की
चिंगारियां होती हैं.......
होती हैं बस -
अपने-अपने हिस्से को खोने की खामोशी,
खामोशी !
सिर्फ़ खामोशी !!!
कबूतर तुम कब सुधरोगे !
कबूतर!
तुम कब सुधरोगे ?
आख़िर तुम क्यों कभी
मन्दिर के अहाते में उतरते हो
तो कभी
मस्ज़िद के आले में ठहरते हो?
क्या तुम्हें पता नहीं है
इनका आपस में
कोई वास्ता नहीं है
मन्दिर से मस्ज़िद तक
या मस्ज़िद से मन्दिर तक
कोई रास्ता नहीं है..
अरे! अगर तुममें
इतनी भी अक्ल नहीं है,
तो क़्यों नहीं तुम हमसे सीखते हो?
क्यों नहीं तुम भी रट लेते हो
हमारी बौद्धिक पुस्तकों की भाषा,
जिनमें हमें बताया गया है-
मन्दिर में हिन्दू पूजा करते हैं,
मस्ज़िद में मुसलमाँ सजदा करते हैं
जिनमें यह नहीं बताया गया है
कि ईद, होली भारत का प्रमुख त्यौहार है
वरन जो बतलाता है
ईद मुसलमानों का त्यौहार है
और
होली, दीवाली हिन्दुओं का है पर्व..
अरे! हमसे सीखो
हम अपना धर्म बचाने के लिए
क्या नहीं करते हैं !
कभी बारूद बनकर मारते हैं
तो कभी बारूद से मरते हैं।
एक तुम हो- ...
आनी चाहिए शर्म
तुम्हें अब तक ये सलीका नहीं आया
कि पहचान सको अपना धर्म !
कहाँ थे तुम जब
मन्दिर हथौड़ा लिए खड़ा था
मस्ज़िद ख़ंजर लिये
हर राह में अड़ा था?
कुछ तो सबक लो
हमारी उन्नत सभ्यता से -
हम बेशक खुद को नहीं जानते हों
पर अपना-अपना धर्म
बखूबी पहचानते हैं..
अरे तुम तो
उस दिन से डरो
जब तुम मरोगे!
उस दिन भी क्या तुम
यही करोगे?
कबूतर तुम कब सुधरोगे?M Verma (M L Verma)
जन्म : वाराणसीशिक्षा : एम. ए., बी. एड (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
कार्यस्थल : दिल्ली (शिक्षा विभाग, दिल्ली सरकार) अध्यापन
बचपन से कविताओं का
शौक. कुछ रचनाएँ प्रकाशित / आकाशवाणी से प्रसारित. नाटकों का भी शौक. रस्किन बांड की ‘The Blue Umbrella’ आधारित नाटक ‘नीली छतरी’ में अभिनय (जश्ने बचपन के अंतर्गत). भोजपुरी रचनाएँ भी लिखी है.दिल्ली में हिन्दी अकादमी द्वारा आयोजित ‘रामायण मेले’ में भोजपुरी रचना पुरस्कृत.
email : hamara8829@hotmail.com
Blogs : http://ghazal-geet.blogspot.com/
http://www.phool-kante.blogspot.com/
http://www.verma8829.blogspot.com/
वर्मा जी की रचनायें हमेशा ही सोचने को मजबूर कर देती हैं…………।जिस स्तर पर उतर कर वो लिखते हैं उसका तो कहना ही क्या हर पाठक को झंझोड देती है।
ReplyDeleteधर्मान्धता पर बहुत ही सटीक व्यंग्य....क्या हम इंसान इन मासूम पक्षियों से कुछ नहीं सीख सकते? बहुत सुन्दर...बधाई
ReplyDeleteधर्म के नाम पर अलगाव फैलाने पर सटीक व्यंग
ReplyDeleteसटीक व्यंग .वर्मा जी रचनाये हमेशा ही गहरे अर्थ लिए होती हैं.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता है।
ReplyDeleteपढकर बहुत अच्छा लगा
हमारे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
मालीगांव
वर्माजी!उस पल को प्रणाम जब 'ये' विचार बन कविता में ढले.उस दिल को सलाम जहाँ इतनी संवेदनशीलता आज भी अपने वजूद में हैं.रश्मि जी को प्रणाम जिन्होंने इस रचना को अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया.सार्थक हुआ हमारा ब्लोगर बनाना और ब्लॉग लिखना.
ReplyDeleteअज्ञेय ने 'सांप तुम सभ्य हुए नही.....' जैस पर उससे कहीं उम्दा,बेहतरीन रचना.उन्होंने मानव स्वभाव की बदसूरती का एक रूप दिखाया पर आपका कबूतर तो धर्म-निरपेक्षता का 'संदेस'लाया है.काश! हम में वो कबूतर ही जीवित होता....
कुर्बान आपकी कविता पर वर्माजी! आपको प्रणाम.मेरा ब्लॉग-दुनिया में आना वसूल हो गया.
बहुत अच्छी प्रस्तुति {बधाई
ReplyDeleteआशा
वाह क्या सुन्दर काव्य रचना.. भावपूर्ण और चेतनापूर्ण...
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा...
बहुत अच्छी कविता है।
ReplyDeleteपढकर बहुत अच्छा लगा
बहुत सटीक!!!
ReplyDeletesteek prastuti
ReplyDeletebadhai swikarea
मोनिका शर्मा ने कहा ....
ReplyDeleteडॉ. मोनिका शर्मा ने आपकी पोस्ट " वटवृक्ष पर मेरी कविता .... " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
अरे! हमसे सीखो
हम अपना धर्म बचाने के लिए
क्या नहीं करते हैं !
कभी बारूद बनकर मारते हैं
तो कभी बारूद से मरते हैं।
seedhe wahan jaakar kavita padh daali.... jana sahi saabit hua... bahut hi umda rachna hai...
डॉ. मोनिका शर्मा द्वारा प्रवाह के लिए १५ अक्तूबर २०१० ५:४३ पूर्वाह्न को पोस्ट किया गया
बहुत अच्छी कविता ।
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