चित्रकार की कैसी है ये कल्पना | उसको तो कुछ न कुछ है रंगना | मंदिर , मस्जिद में चला गया | थी कोशिश इंसा में ही रब को पाना | पर कोई भी एसा नहीं मिला | अपनी रचना सा नहीं दिखा | फिर दूर तलक वो जब पहुंचा | बंसी की धुन सुन ठिठक गया | सृष्टि में एक ख़ामोशी थी | बंसी की धुन ही बाकि थी | चेहरे में उसके रौनक थी | उसकी रचना अब पूरी थी | उसने उसमें कुछ देखा था | शायद प्रेम रस ही बरसा था | वो उसकी धुन में बह निकला | सृष्टी के ही रंग में रंग निकला | फिर एक नई तस्वीर बनी | इंसा के अन्दर की तस्वीर सजी | जिसे वो बाहर खोजा करता था | रंगने को तडपा करता था | अब उसके रंगों को पंख मिले | उसके जीवन...
राधा ...मात्र एक नाम नहीं जो कृष्ण के पूर्व है ! राधा मात्र एक प्रेम स्तम्भ नहीं जो कदम्ब के नीचे कृष्ण के संग सोची जाती है ! राधा एक आध्यात्मिक पृष्ठ है , जहाँ द्वैत अद्वैत का मिलन है ! राधा एक सम्पूर्ण काल का उदगम है जो कृष्ण रुपी समुद्र से मिलती है ! श्रीकृष्ण के जीवन में राधा प्रेम की मूर्ति बनकर आईं। जिस प्रेम को कोई नाप नहीं सका, उसकी आधारशिला राधा ने ही रखी थी।
प्रेम कभी भी शरीर की अवधारणा में नहीं सिमट सकता ... प्रेम वह अनुभूति है जिसमें साथ का एहसास निरंतर होता है ! न उम्र न जाति न उंच नीच ... प्रेम हर बन्धनों से परे एक आत्मशक्ति है , जहाँ सबकुछ हो सकता है .
यदि हम कृष्ण और राधा को हर जगह आत्मिक रूप से उपस्थित पाते हैं तो आत्मिक प्यार की उंचाई और गहराई को समझना होगा . ईश्वर बना देना , ईश्वर मान के उसे अलग कर देना तो समझ को किताबी बना देना है ! कृष्ण किताब के पृष्ठों से परे हैं ! किताब .... हर किताब का यदि हम सूक्ष्म अध्ययन करें तो सबकी सोच अलग अलग दृष्टिगत होती है और अपनी सुविधानुसार हम उसे मान लेते हैं . मानने के लिए हम कोई व्याख्या नहीं करते , बस अपनी समझ से एक अर्थ ग्रहण कर लेते हैं कि राधा कृष्ण प्रेम का मूर्त रूप हैं , रास हर गोपिकाओं के संग था ....
यहाँ राधा के विवाहिता होने पर कोई प्रश्न नहीं उठता, उम्र में बड़ी होने पर कोई प्रश्न नहीं उठता ..... क्योंकि एक काल के गुजर जाने के बाद हमें उससे कोई मतलब नहीं होता और भजन गाने से कोई हानि नहीं लगती , बल्कि राधा को मानकर हम कृष्ण को खुश करते हैं !
रास' का अर्थ भी व्यापक है . जहाँ हमारी मानसिकता मेल खाती है वहाँ भी बातों के रस में , सुकून में एक रास होता है . किसी के मीठे गीत , गूढ़ वचन , वाद्य यंत्रों के स्वर हमें आकर्षित करते हैं और हम स्वतः उधर बढ़ते हैं , लीन होकर सुनते हैं तो यह रास ही हुआ न !रासलीला का तात्पर्य है आत्मा और परमात्मा का मिलन।परमात्मा ही रस है। कृष्ण ने बाल्यकाल में ही गोपियों को ब्रह्माज्ञान प्रदान किया था। यही सही रासलीला थी। रसाधार श्रीकृष्ण का महारास जीव का ब्रह्मा से सम्मिलन का परिचायक और प्रेम का एक महापर्व है। रास लीला में शरीर तो गौण है , तो उसे अपनी सुविधा से उसमें जोड़ देना एक अलग रास्ता बनाना है ! किसी ने देखा नहीं है ... सुना है . और कपोल कल्पना के आधार पर सीमा का अतिक्रमण सही नहीं होता .
किवदंती है कि कृष्ण स्नान करती गोपिकाओं के वस्त्र उठा उन्हें छेड़ते थे , पर सत्य था कि कृष्ण ने एक बार नदी में निर्वस्त्र स्नान कर रहीं गोपिकाओं के वस्त्र चुराकर पेड़ में टांग दिए। स्नान के बाद जब गोपिकाओं को पता चला तो वे कृष्ण से मिन्नतें करने लगीं। कृष्ण ने आगाह करते हुए कहा कि नग्न स्नान से मर्यादा भंग होती है और वरुण देवता का अपमान होता है, और वस्त्र लौटा दिए।
कृष्ण के प्रति कोई राय बनाने से पूर्व इंसान को गीता को समझना होगा क्योंकि उसके बिना कोई कृष्ण को वास्तविक रूप में समझ ही नहीं पाएगा।
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मीरा की दीवानगी भक्ति से जुड़ी थी .। परमात्मा के प्रति मीरा की दीवानगी इस हद तक थी कि उन्हें दुनिया में कृष्ण के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता था।
कौन थीं मीरा?मीरा कृष्ण की दीवानी थी, ऐसा सारा संसार जानता है। मगर उनकी पृष्ठभूमि को जानना भी बहुत जरूरी है। मीरा का जन्म राठौर परिवार के रत्न सिंह और वीर कुंवरी के घर 1512 में मेड़ता में हुआ था। मीरा के दादा का नाम राव द्दा जी था, जो अत्यंत धनाड्य थे। मीरा की माता वीर कुंवरी झाला राजपूत सुल्तान सिंह की बेटी थी।
एक बार मीरा महल के ऊपर खड़ी थी। नीचे से एक बारात जा रही थी। बाल सुलभ मीरा ने मां से पूछा कि यह क्या हो रहा है? मां ने बताया कि बारात जा रही है। मीरा के यह पूछने पर कि बारात क्या होती है? मां ने कहा कि वर पक्ष के लोग कन्या के घर पर उसे विवाह कर लातें है और विवाह में वर का किसी कन्या के साथ विवाह होता है। उसने मां से पूछा कि मेरा वर कौन होगा? इतने में कुल पुरोहित श्रीकृष्ण की एक मूर्ति लेकर आए और मां ने मजाक में कह दिया कि यह है तेरा वर। और मीरा ने श्रीकृष्ण को अपना वर मान लिया।
मीरा जब शादी के योग्य हुईं, तो माता-पिता ने उनका रिश्ता राजकुंवर भोजराज से कर दिया। भोजराज चितौड़ नरेश राणा सांगा के पुत्र थे। मीरा ने इसे अपनी दूसरी शादी करार दिया। राजघराने की बहू बनने के बाद भी वह हर वक्त श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगीं। मीरा की एक देवरानी थी अजब कुंवरी, जो बाल विधवा थी। उसने मीरा की भावनाओं को समझ लिया तथा उसे सखी जैसा प्यार देने लगी। दूसरी तरफ उसकी ननद ऊदो ने बड़ी कोशिश की कि मीरा कृष्ण भक्ति छोड़ दें, मगर असफल रहीं।
राजकुंवर भोजराज की असमयिक मृत्यु हो गई। प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु पर पत्नी को सती हो जाना था, मगर मीरा ने सती होने से इंकार कर दिया। सभी लोग चाहते थे कि मीरा सती हो जाए, मगर भोजराज का छोटा भाई मीरा के पक्ष में खड़ा हो गया और वह सती होने से बच गईं।
मीरा भी ब्याहता थीं , फिर वैधव्य ... पर प्रेम भक्ति की दीवानगी को सबने क्रमशः स्वीकार किया . । पति की मृत्यु होने के बाद मीरा के हृदय में विराग की भावना गहरी होती गयी। उन्होंने समस्त पारिवारिक एवं संसारिक बंधनों से मुक्ति ले ली और साधु-संतों के साथ सत्संग व भगवत चर्चा करने लगी।मीरा की श्रीकृष्ण के प्रति दीवानगी बढ़ती ही गयी। इससे क्रोधित होकर मीरा के देवर ने उनकी हत्या का षड़यंत्र भी रचा और उनकी हत्या करने के उद्देश्य से पिटारे में एक सर्प व एक बार विष का प्याला भी भेजा जिसे उन्होंने पी लिया लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ। यह देखकर लोग आश्चर्यचकित हुए। इन षड़यंत्रों से दुःखी होकर मीरा तीर्थयात्रा का बहाना बनाकर वृंदावन गई और वहां से द्वारिका चली गयी।
रश्मि प्रभा
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विचारों के प्रबुद्ध धरातल पर कुछ और विचारों का साथ है , एक नज़र हम उन पर डालते हैं -
इंसान जब इस धरती पर जन्म लेता है तो उसे कई रिश्तों का नाम मिलता है ..माता पिता , भाई बहन ,और सभी रिश्तेदारों के साथ उनका रिश्ता जन्म से ही जुडा होता है ...ये सभी जन्म प्रदत्त रिश्ते उसे प्रकृति से सौगात में मिलते हैं ...इनपर उसका कोई वश नहीं है ...कौन मात-पिता, कौन भाई बहन होंगे , यह सब इंसान स्वयं निर्धारित नहीं कर सकता ...
इसके बाद आते हैं वे रिश्ते जो वह स्वयं बनाता है ...इनमे से कुछ वैधानिक रिश्ते होते हैं जो समाज अथवा धर्म के नियम व कानून द्वारा उसे प्राप्त होते हैं ...विवाह से जुड़ने वाले रिश्ते इसी श्रेणी में आते हैं...इनके अलावा जीवन में बहुत लोग ऐसे भी संपर्क में आते हैं जो
वास्तव में रिश्ते ना होकर सिर्फ एहसास से जुड़े होते हैं ...ये जन्म और विधि से परे होते हैं ...इन रिश्तों की बुनियाद ना जन्म है , ना धर्म है , ना विधि है ...चूँकि इन रिश्तों में कोई भी बंदिश या निर्भरता नहीं है , ये निस्वार्थ होते हैं ... इनमे से कुछ विशेष लोगों से उनका खास रिश्ता बन जाता है जो मित्र बन जाते हैं ..ये रिश्ते निस्वार्थ प्रेम की अदृश्य बेडी से बंधे होते हैं ...इनमे से भी किसी खास व्यक्ति के लिए एक विशेष एहसास जुड़ता है , वही प्रेम है ...दरअसल प्रेम किसी भी सीमा से परे हैं , इसे किसी भी तर्क के आधार पर समझा नहीं जा सकता ...किसी भी खास व्यक्ति के प्रति लगाव और प्रेम का कारण क्या होगा , कोई नहीं बता सकता ...राधा और कृष्ण का प्रेम इसी श्रेणी में आता है ...चूँकि राधा और कृष्ण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे , उन्हें अवतारी ही माना गया है इसलिए उनका रिश्ता सामान्य प्रेमियों जैसा ना होकर अलौकिक हो गया ..जब सामान्य व्यक्तियों का निस्वार्थ प्रेम भी किसी तर्क की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता तो राधा और कृष्ण के अलौकिक प्रेम को किस तरह सीमाओं में बंधा जा सकता है ...उनका पवित्र प्रेम निस्वार्थ और किसी भी अपेक्षाओं से परे था , अद्भुत था ...
प्रेम और विवाह दोनों अलग बात है ...प्रेम बिना किसी अपेक्षा के होता है जो किसी रिश्ते की मांग नहीं करता है ...मगर विवाह एक सामाजिक बंधन या निर्भरता है ...आम इंसानों के लिए प्रेम को विवाह में बदलना एक सामाजिक अथवा मानसिक जरुरत हो सकती है , मगर जो सीमाओं से परे हों , उनके लिए विवाह प्रेम को कसने की कसौटी हरगिज़ नहीं हो सकती ....कृष्ण के प्रति राधा और मीरा का प्रेम इसी श्रेणी में आता है ...
स्वयं कृष्ण ने अपने और राधा के प्रेम को अपने शब्दों में किस तरह व्यक्त किया ....श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम की गहराई को दर्शाते कई प्रसंग हमारे धर्म ग्रंथों में दिए गए हैं। उन्हीं के अनुसार एक बार राधा से श्रीकृष्ण से पूछा- हे कृष्ण तुम प्रेम तो मुझसे करते हों परंतु तुमने विवाह मुझसे नहीं किया, ऐसा क्यों? मैं अच्छे से जानती हूं तुम साक्षात भगवान ही हो और तुम कुछ भी कर सकते हों, भाग्य का लिखा बदलने में तुम सक्षम हों, फिर भी तुमने रुकमणी से शादी की, मुझसे नहीं।
राधा की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- हे राधे, विवाह दो लोगों के बीच होता है। विवाह के लिए दो अलग-अलग व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। तुम मुझे यह बताओं राधा और कृष्ण में दूसरा कौन है। हम तो एक ही हैं। फिर हमें विवाह की क्या आवश्यकता है।
लौकिक कारणों से कृष्ण और राधा ने विवाह किये मगर नि:स्वार्थ प्रेम, विवाह के बंधन से अधिक महान और पवित्र होता है। राधा प्रेम की प्रतिमूर्ति थी , कृष्ण उनके प्रेम के बंधन से बंधे थे ...उस निस्वार्थ प्रेम के आगे नतमस्तक होकर ही कृष्ण ने खुद के नाम से पहले राधा का नाम लिया जाने का निर्देश दिया ...वाण से घायल कृष्ण ने देह छोड़ते हुए भी राधा को ही पुकारा ...उद्धव जी से ने भी राधा को समाचार देते हुए यही कहा ..." राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे ,
किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी"
राधा कृष्ण के प्रेम का एक बहुत ही रोचक दृष्टान्त का उल्लेख भी है ...कृष्ण के राधा के प्रति प्रेम से जलन करते हुए उनकी पत्नियों ने खुलता हुआ दूध राधा को देते हुए कहा की कृष्ण ने भेजा है ...राधा ने बिना कोई प्रश्न किये वह गरम दूध गटक लिया ...जब वे कृष्ण के पास लौटी तो कृष्ण का शरीर छालों से भरा था ...प्रेम की यह परकाष्ठा देख कौन नतमस्तक नहीं होता ...
मीरा ने एक समान्य इंसान की तरह जन्म लिया , मगर कृष्ण अलौकिक थे, अवतार थे ... जब बहुत बचपन में मीरा की माता ने उन्हें मजाक में ही कृष्ण से विवाह होना बताया , तो वे उसे ही सत्य मानकर आजीवन कृष्ण को ही अपना पति मानती रही ...उनका प्रेम भी किसी सीमा से परे आत्मिक था ...कृष्ण को उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में नहीं देखा था , उनका प्रेम अध्यात्म और भक्ति का था ...मीरा आराधिका थी , कृष्ण उनके आराध्य ...उनका प्रेम परलौकिक था , अध्यात्मिक था ... सांसारिक धर्म के निबाह के लिए मीरा का विवाह किया गया था , मगर उनका अध्यात्मिक प्रेम निस्वार्थ और वासना से परे था , जिसे उनके पति ने भी स्वीकार किया और उनके लिए महल में ही कृष्ण का मंदिर बनवा दिया ...किन शब्दों में इनकी व्याख्या की जाए ...क्योंकि प्रेम तो शब्दों से परे हैं ,अकारण है , निस्वार्थ है और जब वह अध्यात्म के उच्चतम स्तर को प्राप्त कर ले तो सरल शब्दों में इसकी व्याख्या किस प्रकार की जाए ...यह सिर्फ समझा जा सकता है ...महसूस किया जा सकता है ...!!!
वाणी शर्मा
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प्यार का मार्ग बड़ा ही आकर्षण और चकाचौंध वाला होता है .....इस प्यार की भाषा और परिभाषा एक दम अलग और हट के है...तू ही सगा ...तू ही प्यारा ...इस जग में नहीं कोई तुझ से न्यारा ..पर इसके लिए अपनी अटूट निष्ठां ...श्रद्धा और अपनी तमाम वफादारी देनी पड़ती है .............प्यार ना देखे कोई जात पात ..ना देखे कोई रंग रूप ..जिसे ये मिला है अद्भुत स्वरुप ..वही है इस प्यार से फलीभूत |
प्यार शब्द खुद में अधूरा ...पर जिसने टूट के प्यार किया...उसे इस संसार ने याद भी किया और अपनी यादो में स्थान भी दिया
प्यार मीरा और राधा का ......जो बन के विश्वास आज भी इस जग में मौजूद है
राधा और कृष्ण की पहली मुलाकात ....और ब्याहता राधा हमेशा के लिए उस कृष्ण की हो कर रह गई ....उसकी पूजा ..उसका अटूट विश्वास कृष्ण के प्रति और ना भूल पाने के इच्छा शक्ति के आगे ..कृष्ण भी छोटे नज़र आते है ...कृष्ण की पत्नी ना होते हुए भी राधा का नाम आज संसार में कृष्ण से पहले प्यार और इज्ज़त से लिया जाता है ...प्यार का स्वरूप कैसा हो .......''राधा कृष्ण'' जैसा सबसे पहले ये ही जुबां से निकलता है |राधा को कृष्ण से जितना मिला ..जो मिला उसी को अपना मान उसने अपनी पूरी जिंदगी ...उस कृष्ण के प्यार के नाम कर दी .....रोग ..भोग ..शोक ..भय ....चिंता ...और क्रोध सब कुछ छोड़ कृष्णमय हो गई ..राधा प्यारी
मीरा और राधा दोनों का प्यार ....उनकी अपनी जिंदगियो से हट कर था ..जहाँ राधा ब्याहता थी....वही मीरा बचपन से ही माँ के कहने भर से कृष्ण को अपना पाती मानती आई थी .......बड़े होने पर मीरा की शादी की गई पर वो राणा जी की ना हो पाई .......वो अपने प्यार में आखंड डूब चुकी थी ....प्यार जो वासना रहित था ......कोई काम नहीं ...ना मिलने की आशा .....इनका चितस्वरूपी सरोवर कभी गन्दा नहीं हुआ ....मन और तन दोनों से ये पवित्र ...सिर्फ और सिर्फ अपने प्यार में डूबी रही ....मनन किया ..मन से अपने प्यार का चिंतन किया | राधा और मीरा के मन के भावो को समझते हुए अपनी व्याख्या मै इन शब्दों से समाप्त करती हूँ कि... हे कृष्ण .....अदभुत है प्यार तुम्हारा ....अदभुत है साथ तुम्हारा जो राधा और मीरा को कर गया तुम्हारा ....इस जग में प्यार की मूरत बन गई वो दोनों |पवित्र गंगा ...गीता के सार जैसा बसा है प्यार तुम्हार उनके हृदय में ...जिसको हमारा शत शत नमन |
अंजू अन्नू चौधरी
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कठिनाई यह है कि कृष्ण को हम साधारण मानव के रूप में केवल देह स्तर पर समझने का गलत प्रयास करतें हैं.कृष्ण 'सत्-चित-आनन्द'
का प्रतीक ईश्वरीय भाव है.इस भाव का ही एक साकार रूप कृष्ण हैं. जिसको भक्त के हृदय अनुसार ही आकार प्राप्त हुआ है.भक्त किसी भी सम्बन्ध
को मानकर इस भाव से जुड सकता है.जब भक्त कृष्ण को पति मानकर जुड़ता है तो वह भक्ति मधुरा भक्ति कहलाती है. राधा जी तो स्वयं भक्तिस्वरूपा
हैं.कहतें है राधा के उच्चारण मात्र से कृष्ण दौड़े चले आते हैं.अर्थात भक्ति रस में डूब भक्त की भाव समाधी लग जाती है. : भक्ति की महिमा ही न्यारी है.
मीरा भी कृष्ण भाव को पति मानकर जुड़ीं और कृष्ण की दीवानी कहलायीं. सूरदास जी कभी वात्सल्य भाव से कभी गोपी भाव से जुड़े.रसखान भी जुड़े.गोस्वामी तुलसी दास जी तो 'सत्-चित-आनन्द' भाव को राम रूप में आकार दे उससे सेवक-स्वामी भाव से जुड़े.
आप और हम भी जुड सकतें हैं,बस 'सत्-चित-आनन्द' को समझने की जरुरत है , उससे एक रिश्ता मानने की जरूरत है और फिर उस रिश्ते में निष्ठा,विश्वास और पूर्ण समर्पण की जरुरत है.
मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा' पर मेरी पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-१' में 'सत्-चित-आनन्द' भाव को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है
"तथ्य यह है कि हम सब आनन्द चाहते हैं और आनन्द की खोज में ही जीवन में भटक रहे हैं.
सच्चे आनन्द के स्वरुप को न जानने और न पहचानने की वजह से ही यह भटकन है.
यदि हमें ऐसा आनन्द मिले जो क्षणिक हो,अस्थाई हो ,समय से बाधित हो ,आज हो कल न हो ,
तो उससे हमे पूर्ण संतुष्टि और आराम नहीं मिल सकता. परन्तु यदि आनन्द 'सत् ' हो ,चिर
स्थाई हो ,काल बाधित न हो, हमेशा बना रहे,ज्ञान और प्रकाश स्वरुप हो अर्थात 'चेतन' हो तो
ऐसा ही आनन्द 'सत्-चित-आनन्द' होता है जिसकी हम खोज कर रहे हैं , जिसे शास्त्रों में परमात्मा कहा
गया है.ऐसे आनन्द को प्राप्त करना ही हमारा परम लक्ष्य है,वही आखरी मंजिल है
इसीलिए वह ही 'परम धाम' है. आनन्द के सम्बन्ध में कोई पूर्वाग्रह करना कि वह
निर्गुण निराकार ही हो, या सगुण साकार न हो उचित नहीं जान पड़ता."
मीरा को उसकी माँ ने बचपन में 'कृष्ण' को पति रूप में पूजा करने की शिक्षा संस्कार से दी. तत्पश्चात उनके गुरू संत रविदासजी
को भी बताया जाता हैं. . कहतें हैं वे गोस्वामी तुलसीदास जी के भी संपर्क में आयीं,.जिनसे प्रथम उन्होंने ईश्वर को राम रूप में,फिर
संस्कारों के फलस्वरूप कृष्ण रूप में ध्याने की प्रेरणा पाई. इस प्रकार मीरा ईश्वर को तत्व रूप से समझ, उनके कृष्ण रूप को पति मान
अपने प्रेम,निष्ठा,विश्वास और पूर्ण समर्पण से ही वे कृष्ण की दीवानी कहलायीं. भक्ति में केवल ध्येय तत्व ही रह जाता है,कोई अन्य भाव नहीं.
इसीलिए तो मीरा कहतीं हैं 'मेरो तो गिरधर गोपाल,दूसरों न कोई,जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई'
राकेश कुमार
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कहते हैं राधा ब्याहता थीं ... फिर कृष्ण प्रेम , कृष्ण से पूर्व उनका नाम कसौटी पर खरा है ?
जब हम श्री कृष्ण को भगवान मानते हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि उनका शरीर देखने भर को मानव होता है पर वास्तव में वह चिन्मय होता है, दिव्य होता है | उनके कार्य दिखते प्राकृत हैं पर होते दिव्य हैं | भक्तों पर (जिनमे पेड़-पौधे, जीव-जंतु, स्थावर व जंगम सभी आ जाते हैं) कृपा करने के लिए, उनकी जन्म-जन्मान्तरों की सेवा, जप-तप, भजन-ध्यान और अच्छे कर्मों को पूर्णता प्रदान करके अपनी भक्ति, ज्ञान और चिन्मय सुख का दान देने के लिए ही वे अवतरित होते हैं | भक्तों पर अनुग्रह करके प्रारब्धवश प्राप्त बुरे कर्मों से निजात दिलाने और अपने स्व-स्वरुप में प्रतिष्ठित करने के लिए ही वे अवतरित होते हैं | चूँकि हम कलियुगी मानव हैं, हम उन्हें एक साधारण मानव के दृष्टिकोण से देखते हैं और अपनी समझ की सीमाओं के अनुरूप ही विश्लेषण करते हैं ऐसे में हम भक्ति-विहीन मानवों को उनकी लीलाएं समझ में नहीं आती हैं | मेरी समझ भी साधारण ही है और वास्तव में मैं इस विषय पर लिखने के काबिल नहीं हूँ पर गुरुदेव की कृपा से जो मन के उद्दगार हैं उन्हें प्रकट करने की कोशिश कर रहा हूँ |
पहला पहलू : राधा श्री कृष्ण कि ह्लादिनी शक्ति थी | वे साक्षात् लक्ष्मी थी जिन्होंने राधा रूप में अवतार लिया | चूँकि वे कृष्ण की बाल लीलाओं में सहयोग देने के लिए अवतरित हुई थीं सो उनका श्री कृष्ण से प्रेम नैसर्गिक था और उनका नाम कृष्ण से पहले लिखा या कहा जाना युक्ति संगत है |
दूसरा पहलू : राधा पिछले जन्मों में ईश्वर की अनन्य भक्त थी | रामावतार में जो ऋषि-मुनि थे वे ही श्री कृष्ण अवतार में गोपी बने थे | अनेक ऐसे भी भक्त हुए जिन्होंने ईश्वर को स्वामी रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की और फिर गोपी बने | ऐसे गोपियों का वर्णन पुराणों में आता है | जब-जब ईश्वर का अवतार होता है तब-तब मानव लीला में सहयोग देने के लिए उनकी शक्तियां भी अनेकों रूपों में अवतरित होती है | कुछ पहले ही अवतरित होती हैं और कुछ बाद में | राधा जी व्रज में अवतरित हुईं और उनका विवाह भी हुआ पर वे तो ईश्वर के आने की राह देख रहीं थीं | श्री कृष्ण जब उनसे मिले तो वे मात्र ६-७ वर्ष के बालक थे | श्री कृष्ण की नन्द बाबा के यहाँ, व्रज में और वृन्दावन में जो लीलाएं थी वे बाल्यकाल की थीं | राधा और गोपिओं का जो श्री कृष्ण से प्रेम था वह वैसा ही था जैसा मैया यशोदा का, नन्द बाबा का, रोहिणी जी का, और वहां के अन्य गोपों का था | वे इतने सुन्दर थे और उनके क्रिया-कलाप इतने मधुर थे कि नंदगाँव, व्रज और वृन्दावन तो क्या त्रिलोक के सभी जीव जंतु मोहित हो जाते थे | उनकी हर लीला में दिव्य और अध्यात्मिक सन्देश होता है |
अब इसे आज के परिपेक्ष में देखें - घर में एक बालक का जन्म होता है तो कैसी खुशियाँ मनाई जाती हैं | परिवार के सदस्य तो क्या पड़ोसियों तक का बालक (बालिका) लाडला होता है | हर कोई उसे खिलाना चाहता है और उससे प्यार करता है चाहे आदमी हो या औरत | बच्चे जब तक १०-१२ साल के नहीं हो जाते हर कोई उनसे अपने बच्चों की तरह ही प्यार करता है | यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि यह प्यार आदमी-औरत वाला नहीं होता है | इसीतरह यदि हम यह मानें कि राधा जी उम्र में कृष्ण से बड़ी है तो उनका प्यार भी औरत-आदमी (प्राकृतिक) न होकर दिव्य था | कृष्ण जी राधा जी को मान देते थे और इस लिए राधा जी का नाम उनके नाम से पहले लिया जाता है |
तीसरा पहलू : कहीं-कहीं यह भी कहा गया है कि राधा और कृष्ण की उम्र एक सामान थी | तो जैसे बच्चे आपस में घर-घर खेलते हुए पति-पत्नी बनाते हैं वैसे ही राधा भी किसी कि बनी होंगी और जब कृष्ण से मिली होंगी तो कृष्ण ने कहा होगा कि तुम तो ब्याहता हो | इसी क्रम में चलें तो राधा जी ब्याहता होते हुए भी श्री कृष्ण की सखी बनी और अन्य गोपियाँ भी सखी बनी | बच्चों में प्यार दिव्य ही होता है और आदमी औरत के जिस्मानी प्यार जैसा नहीं होता है | राधा जी कृष्ण जी की सखियों में प्रमुख थीं सो उनका नाम कृष्ण जी से पहले लिया जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जिसे आप बेहद चाहते है उसका नाम हमेसा पहले देखना सुनना चाहते हैं | फिर यह भी कहा गया है कि कृष्ण ने राधा को वरदान दिया था कि उनका नाम उनसे पहले लिया जायेगा |
उपसंहार : राधा जी कृष्ण जी कि ह्लादिनी शक्ति हैं | वे व श्री कृष्ण कभी अलग हैं ही नहीं | ठीक उसी तरह से जैसे शिव और हरि एक ही हैं | भक्तों के लिए वे अलग-अलग रूप धारण करते हैं, अलग-अलग लीलाएं करते हैं | ईश्वर सर्वत्र हैं, कण-कण में हैं | फिर हममें आपमें क्या नहीं हैं? भक्तों के रूप में भी ईश्वर ही होते हैं और भक्तों को सदा मान देते आयें हैं | श्री रामचरित मानस में कहा है :
ते जानहिं जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होई जाई |
ईश्वर को वही जान सकता है जिसको वे खुद जानने दें और जब वह जान जाता है तो उसके में और ईश्वर में भेद नहीं रह जाता है | यह संपूर्ण विश्व ईश्वर में है या यूँ कहें तो ईश्वर ही विश्व रूप में प्रकट है | तत्त्व दृष्टि से देखें तो राधा ब्याहता हों या न हों, उनका नाम कृष्ण के पहले आये या बाद में - कोई मायने नहीं रखता | राधा और कृष्ण में कोई अंतर नहीं है और राधा का कृष्ण प्रेम सत्य और दिव्य है | मानवी समझ से परे है | राधा नाम कृष्ण के पहले आये यह कृष्ण को अभीष्ट है और कसौटी पर खरा है |
मीरा ने भी माँ के द्वारा कृष्ण को पति माना पर विवाह किसी और से हुआ ... पर वे कृष्ण दीवानी रहीं ...
मीरा विवाहिता थीं | वे कृष्ण जी कि अनन्य भक्त थी जैसे शबरी राम जी कि अनन्य भक्त थीं | उनका कृष्ण प्रेम दीवानगी कि हद पार कर गया था | वे गोपियों कि तरह ही कृष्णमय हो गयीं थी | वे एक महिला थीं इस लिए आज के भ्रष्ट तथाकथित बुद्धिजीवी अपनी क्षुद्र मति के अनुसार उनके कृष्ण प्रेम का विश्लेषण करते हैं | ऐसी अनन्य भक्ति तुकाराम में, तुलसीदास में, धन्ना जाट आदि में भी थी | वे भी अपने इष्ट के दीवाने थे पर चूँकि वे पुरुष थे इस लिए उनके लिए लोगों के मन में दुर्भाव नहीं होता है | मीरा जैसी भक्ति बहुत तपस्या के बाद मिलाती है | उनकी माँ ने उनके अन्दर भक्ति के संस्कार न डाले होते तो वे भी एक साधारण मनुष्य की भांति होतीं | भक्त का मतलब यह नहीं होता है कि वह संसार-धर्म में न उतरे | भक्त संसार के सभी कार्य आम मनुष्य की भांति करता हुआ भक्ति करता है | जिनकी भक्ति अपनी परकाष्ठा पर होती है वे मीरा जैसे हो जाते हैं, रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु जैसे हो जाते हैं | ईश्वरमय हो जाते हैं | वे दीवाने हो जाते हैं | पागल (पा + गल) कहलातें है, यानि जिसने जानने योग्य, पाने योग्य वस्तु को पा लिया हो |
हेमंत कुमार दुबे
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राधा कृष्ण के प्रेम के बारे में या उसके व्याख्या के बारे में मेरा ज्ञान कुछ ज्यादा नहीं है । इसलिए यह सही था या गलत, या फिर इस प्रेम का निहितार्थ क्या है, इस बारे में कुछ भी कहना शायद मेरे लिए सही नहीं होगा । हाँ, एक बात यहाँ ज़रूर कहना चाहूँगा कि इस प्रेम की बात से मुझे भारतीय समाज, खासकर तथाकथित पारंपरिक समाज में व्याप्त दोगलापन के बारे में सोच कर बुरा ज़रूर लगता है । अक्सर ये सुनने में आता है कि भारत में कई जगह पर प्रेमी जुगल को उनके ही घर वाले मौत के घात उतार दिए । ये वही लोग हैं जो किसी आश्रम में जाकर, या किसी कथा/प्रवचन के अवसर पर मंत्रमुग्ध होकर राधा-कृष्ण के प्रेमलीला के बारे में सुनते रहते हैं, उनको पूजते रहते हैं, और उनके प्रेम के न जाने कितने तरह के व्याख्या करते नहीं थकते । चूँकि वो कृष्ण को भगवान के रूप में मानते हैं, इसलिए उनका राधा से प्रेम को कोई गलत नज़र से नहीं देखते हैं । बल्कि वो तो इसे प्रेम की पराकाष्ठा मानते हैं । हर साल होली के अवसर पर राधा-कृष्ण के प्रेम के गाने गए जाते हैं । पर जब हकीकत के समाज में कोई प्रेम करे, तो उसे ये दोगले लोग सह नहीं पाते हैं । उनके लिए यह सामाजिक परंपराओं पर प्रहार होता है । जबकि प्रेम तो एक सुन्दर भावना है । मन में नफरत भर कर, बहशी जानवर बन कर, ये लोग प्रेम को मिटाकर, समाज को बचने लग पड़ते हैं ।
मुझे ऐसा लगता है, कि यदि हम सही मायने में देखें तो भले ही हमारा समाज तकनिकी रूप से उन्नति कर लिया है, पर दरअसल हम धीरे धीरे बहुत, बहुत ही ज्यादा, पिछड़े बन चुके हैं । हजारों साल पहले राधा-कृष्ण के युग में सामाजिक तौर पे हम जितना उन्नत थे आज हम उससे कहीं ज्यादा पिछड़ गए हैं ।