'हिंदी हैं हम वतन है हिन्दुस्तां हमारा...'
पर शुरुआत होती है A B C D से ...
'तुम्हारा नाम क्या है से अधिक जमता है - WHAT IS YOUR NAME !'
माना , अंग्रेजी कई भाषाओं के बीच कड़ी का काम करती है , पर अपनी मातृभाषा के लिए अजीबोगरीब
रश्मि प्रभा
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!!हिन्दी - अंग्रेजी का वाक् युद्ध !!
अंग्रेजी ................................
तू हो गयी है आउट ऑफ़ डेट,
मार्केट में तेरा नहीं है कोई रेट
तू जो मुँह से निकल जाए,
लडकी भी नहीं होती सेट
तेरी डिग्री को गले से लगाए,
नौजवान रोते रहते हैं
तुझे लिखने , बोलने वाले,
फटेहाल ही रहते हैं
जिस पल से तू बन जाती है,
किसी कवि या लेखक की आत्मा
उसे बचा नहीं सकता फाकों से,
ईसा, खुदा या परमात्मा
मैं जब मुँह से झड़ती हूँ,
बड़े - बड़े चुप हो जाते हैं
थर - थर कांपती है पुलिस भी,
सारे काम चुटकी में हो जाते हैं
तुझे बोलने वाले लोग,
समाज के लिए बेकवर्ड हैं
मैं लाख दुखों की एक दवा,
तू हर दिल में बसा हुआ दर्द है
मैं नई दुनिया की अभिलाषा,
तू गरीब, गंवार की भाषा
मैं नई संस्कृति का सपना,
तू जीवन की घोर निराशा
ओ गरीब की औरत हिन्दी !
तू चमकीली ओढ़नी पर घटिया सा पैबंद है
तेरे स्कूलों के बच्चे माँ - बाप को भी नापसंद हैं
मैं नई - नई बह रही बयार हूँ
नौजवानों का पहला -पहला प्यार हूँ
मुझ पर कभी चालान नहीं होता
मुझे बोलने वाला भूखा नहीं सोता
मुझमे बसी लडकियां कभी कुंवारी नहीं रहतीं
शादी के बाद भी किसी का रौब नहीं सह्तीं
मुझको लिखने वाले बुकर और नोबेल पाते हैं
तुझे रचने वाले भुखमरी से मर जाते हैं
हिन्दी .........................................
मेरे बच्चे तेरी रोटी भले ही खा लें,
तेरी सभ्यता को गले से लगा लें,
सांस लेने को उन्हें मेरी ही हवा चाहिए
सोने से पहले मेरी ही गोद चाहिए
बेशक सारे संसार में आज,
तेरी ही तूती बोलती है
मार्ग प्रगति के चहुँ ओर,
तू ही खोलती है
पर इतना समझ ले नादाँ,
शेफाली पाण्डे
मैं अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र एवं शिक्षा-शास्त्र (एम. एड.) विषयों से स्नातकोत्तर हूँ, लेकिन मेरे प्राण हिंदी में बसते हैं उत्तराखंड के ग्रामीण अंचल के एक सरकारी विद्यालय में कार्यरत, मैं अंग्रेजी की अध्यापिका हूँ मेरा निवास-स्थान हल्द्वानी, ज़िला नैनीताल, उत्तराखंड है अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं से मुझे लिखने की प्रेरणा मिलती है बचपन में कविताओं से शुरू हुई मेरी लेखन-यात्रा कहानियों, लघुकथाओं इत्यादि से गुज़रते हुए 'व्यंग्य' नामक पड़ाव पर पहुँच चुकी है मेरे व्यंग्य-लेखन से यदि किसी को कोई कष्ट या दुःख पहुंचे तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ....!
दरसल भाषा हमारी मानसिकता को दर्शाती है,जब तक हम इस सोच से निजात नही पायेंगे कि जो ,विदेशी है अच्छा है,बदलाव की सम्भावना कम है।
ReplyDeleteशैफाली तो शिक्षिका हैं वे यह बात अच्छी तरह समझती हैं। असल में यह बहस ही बेमानी है। और यह सोचना कि अंग्रेजी विदेशी भाषा यह अपने आप को सदियों पीछे ले जाने जैसा है। असल में हर बच्चे की अपनी एक मातृभाषा होती है। यह वह है जो उसके घर में बोली जाती है,उसके परिवेश में बोली जाती है।
ReplyDeleteवह हिन्दी हो सकती है,मराठी हो सकती है ,कन्नड़ हो सकती है,तमिल हो सकती है या फिर अंग्रेजी भी हो सकती है। इतना ही नहीं वह कुमांऊनी,गढ़वाली,भोजपुरी,मालवी,बुंदेली,अवधी भी हो सकती है। इस भाषा के परिवेश में जन्मा बच्चा जब स्कूल जाता है तो उसे वहां की औपचारिक भाषा सीखने में समस्या आती ही है। वह चाहे अंग्रेजी हो या फिर हिन्दी।
मैं यहां कर्नाटक में हूं। यहां के बच्चों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही मुश्किल भाषाएं हैं। उसी तरह मप्र के बच्चों के लिए कन्नड़ और अंग्रेजी बराबर हैं।
इसलिए सवाल हिन्दी का नहीं है पहला सवाल मातृभाषा का है दूसरा सम्पर्क भाषा का।
मैं आपको बता दूं कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती है। केवल और केवल हिन्दी जानता हूं। पिछले डेढ़ साल से बंगलौर में हूं आजीविका के सिलसिले में। कोई समस्या नहीं है।
तो दूसरा सवाल यह भी है कि जो हमें आता है उसका उपयोग करें उसे बढ़ावा दें। नई भाषाएं सीखें। पर उनका उपयोग वहीं करें जहां उनकी जरुरत हो।
परिकल्पना समूह से यह एक अनुरोध है कि इस ब्लाग का नेवीगेशन जरा सरल कर दें। यह लोड होने में बहुत समय लेता है। और डाटाकार्ड पर तो खुलता ही नहीं है।
ReplyDeleteमाँ फिर भी माँ ही होती है
ReplyDeleteसच कहा………………और यही अन्तिम सत्य है। बेहद उम्दा प्रस्तुति।
:):) बहुत बढ़िया वाक युद्ध ...
ReplyDeleteशेफाली जी
ReplyDeleteनमस्ते !
अच्छा मंथन है , हिंदी , विश्व कि तीसरी सब से ज़यादा बोली जाने वाली भाषा है , मगर विडम्बना ये ही है कि हम ही अपने बछो को हिंदी के बजाय इंग्लिश में बात करने का जोर देते है , जब कि प्रादेशिक बोली वाले हिंदी में ,इक और अपनी मात्र भाषा तो दूसरी और अपनी राष्ट्र भाषा के साथ दुर्व्यवहार कर रहे है दोष किसे दे ? मैं सम्मानिय राजेश जी कि बात से भी सहमत हूँ !
साधुवाद !
shefali ji,
ReplyDeleteaapka vyang lekhan sadaiv prabhaavit karta hai. is baar to aapne un sabhi aam logon ki baat likhi hai jo aaj ke parivesh mein angreji ke karan maat khaate hain. sthiti dukhad hai lekin satya hai. achhi lekhni ke liye badhai.
आत्म मंथन के लिये प्रेरित करती एक सार्थक रचना ! अपनी राष्ट्र भाषा का तिरस्कार कर किसी भी भारतीय का सम्मान नहीं बढ़ेगा ! जब हम ही अपनी राष्ट्र भाषा को महत्त्व नहीं देंगे तो क्या विदेशी देंगे ? इस मानसिक दासता से मुक्त होना परम आवश्यक है ! चिंतनीय रचना के लिये बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeleteमाँ फिर भी माँ ही होती है ..अपनी मातृभाषा को सम्मान मिलना ही चाहिए ..
ReplyDeleteसही कहा ...
शेफाली जी का यहाँ मिलना सुखद है ...!
भावपूर्ण चिंतनीय रचना
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