थी वे साथ चले कैसे !सपने और हकीकत के बीच कोई तालमेल ना हो तो जीना कैसा ...
" जैसे जागी हुई आँखों में चुभें कांच के ख्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है ..." (मीना कुमारी)
ऐसे में ,
मैंने उठाये हैं कुछ जज़्बात
और आँखों से परे रख दिया है ...
रश्मि प्रभा
दोस्तों , आज मैंने एक तमिल कवियित्री सलमा की कविता पढ़ी .... तो मुझे बहुत पहले पढ़ी हुई एक किताब याद आ गयी . “ The second sex ” by Simone De Beauvoir.... फिर मैंने आज ये कविता लिखी . स्त्रीयों को underdeveloped और developing देशो में जिस तरह की ज़िन्दगी हासिल होती है ..वो ज्यादातर सिर्फ उनके शरीर पर ही केंद्रित होता है .. मैंने इस कविता को लिखते समय इसी पक्ष को रखने कि कोशिश की है .. बस ,हमेशा की तरह आपका आशीर्वाद चाहिए ... |
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!! स्त्री– एक अपरिचिता !!
मैं हर रात ;
तुम्हारे कमरे में आने से पहले सिहरती हूँ
कि तुम्हारा वही डरावना प्रश्न ;
मुझे अपनी सम्पूर्ण दुष्टता से निहारेंगा
और पूछेंगा मेरे शरीर से , “ आज नया क्या है ? ”
कई युगों से पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ भोग्या ही रही
मैं जन्मो से ,तुम्हारे लिए सिर्फ शरीर ही बनी रही ..
ताकि , मैं तुम्हारे घर के काम कर सकू ..
ताकि , मैं तुम्हारे बच्चो को जन्म दे सकू ,
ताकि , मैं तुम्हारे लिये तुम्हारे घर को संभाल सकू .
तुम्हारा घर जो कभी मेरा घर न बन सका ,
और तुम्हारा कमरा भी ;
जो सिर्फ तुम्हारे सम्भोग की अनुभूति के लिए रह गया है
जिसमे , सिर्फ मेरा शरीर ही शामिल होता है ..
सिर्फ तन को ही जाना है तुमने ;
आज तक मेरे मन को नहीं जाना .
एक स्त्री का मन , क्या होता है ,
तुम जान न सके ..
शरीर की अनुभूतियो से आगे बढ़ न सके
मन में होती है एक स्त्री..
जो कभी कभी तुम्हारी माँ भी बनती है ,
जब वो तुम्हारी रोगी काया की देखभाल करती है ..
जो कभी कभी तुम्हारी बहन भी बनती है ,
जब वो तुम्हारे कपडे और बर्तन धोती है
जो कभी कभी तुम्हारी बेटी भी बनती है ,
जब वो तुम्हे प्रेम से खाना परोसती है
और तुम्हारी प्रेमिका भी तो बनती है ,
जब तुम्हारे बारे में वो बिना किसी स्वार्थ के सोचती है ..
और वो सबसे प्यारा सा संबन्ध ,
हमारी मित्रता का , वो तो तुम भूल ही गए ..
तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही ...
क्योंकि तुम्हारा सम्भोग तन के आगे
किसी और रूप को जान ही नहीं पाता है ..
और अक्सर न चाहते हुए भी मैं तुम्हे
अपना शरीर एक पत्नी के रूप में समर्पित करती हूँ ॥
लेकिन तुम सिर्फ भोगने के सुख को ढूंढते हो ,
और मुझसे एक दासी के रूप में समर्पण चाहते हो ..
और तब ही मेरे शरीर का वो पत्नी रूप भी मर जाता है ।
जीवन की अंतिम गलियों में जब तुम मेरे साथ रहोंगे ,
तब भी मैं अपने भीतर की स्त्री के
सारे रूपों को तुम्हे समर्पित करुँगी
तब तुम्हे उन सारे रूपों की ज्यादा जरुरत होंगी ,
क्योंकि तुम मेरे तन को भोगने में असमर्थ होंगे
क्योंकि तुम तब तक मेरे सारे रूपों को
अपनी इच्छाओ की अग्नि में स्वाहा करके
मुझे सिर्फ एक दासी का ही रूप बना चुके होंगे ,
लेकिन तुम तब भी मेरे साथ सम्भोग करोंगे ,
मेरी इच्छाओ के साथ..
मेरी आस्थाओं के साथ..
मेरे सपनो के साथ..
मेरे जीवन की अंतिम साँसों के साथ
मैं एक स्त्री ही बनकर जी सकी
और स्त्री ही बनकर मर जाउंगी
एक स्त्री ....
जो तुम्हारे लिए अपरिचित रही
जो तुम्हारे लिए उपेक्षित रही
जो तुम्हारे लिए अबला रही ...
पर हाँ , तुम मुझे भले कभी जान न सके
फिर भी ..मैं तुम्हारी ही रही ....
एक स्त्री जो हूँ.....
विजय कुमार सप्पत्ति
http://poemsofvijay.blogspot.com/
स्त्री के मन के हर भाव को उजागर किया है ...विचारपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्देर कविता..
ReplyDeleteभावपूर्ण और विचारणीय कविता के लिए विजय जी आपको बधाईयाँ !
ReplyDeleteToooo Good...!
ReplyDeleteस्त्री मन् को दर्शाती सशख्त रचना ...!
नारी मन की भावनाओं को जितनी बारीकी से उकेरा है वह तारीफ के काबिल ही है और आज भी नारी इससे ऊपर क्या है? इसके देखने के लिए कितने घर झाँकने होंगे और उसपर भी १०० में से आप को सिर्फ और सिर्फ १० ऐसे मिलेंगे जिनमें नारी मन संतुष्ट है. अपनी भूमिका से और अपने प्रति औरो कि भूमिका से. नहीं तो आँखों में झांक कर देख लें तोपता चल जाएगा कि रोज गाड़ी में बैठ कर ऑफिस आने वाली नारी या पति के साथ पार्टियों में साथ देने वाली नारी कितनी खुश है? वो मानसिकता बदल नहीं पा रही है और अपनी सोच उन्हें समझ नहीं पा रही है पता नहीं और कितने दशकों तक ये ही कहानी उसकी बनी रहेगी.
ReplyDeletefemale mann ko jhankrit karne wali rachna........lekin sir!! jeevan me iske alag bhi kuchh hai, kyonki adhiktar purush ne stri ko dil se chaha hai, sirf bhogya nahi samjha......:)
ReplyDeleteतारीफ के काबिल है कविता..
ReplyDeleteस्त्री मन की व्यथा पर एक सार्थक पहल करती हुयी विचारों से परिपूर्ण कविता, अच्छी लगी !
ReplyDeleteएक स्त्री की व्यथा को उजागर करती सशक्त रचना ......एक पुरुष के द्वारा की गयी अभिव्यक्ति रचना को और भी प्रभावी बना देता है....
ReplyDeleteविजय जी, शुभकामनाएं व आभार!
नारी ह्रदय की पीड़ा का बहुत ही अच्छे से शब्दचित्र उकेरा है आपने .....
ReplyDeleteतुम मुझे जान ना सके ...फिर भी मैं तुम्हारी ही रही ...
ReplyDeleteअपिरिचित स्त्री को परिचित कराती अच्छी कविता ..!
behad khubsurti se aapne apne sabdo ke pryog se nari ki peeda ko bataya hai,
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