अपना दुख जब छोटा लगता है (संस्मरण )
कभी कभी किसी का दुख देख कर अपना दुख बहुत छोटा सा लगने लगता है इस लिये सब के साथ कोई दुखदायी घटना बाँटने से शायद आपको भी लगी कि आपका कोई दुख किसी से बहुत छोटा है। जो बहुत दिन पहले की घटना है जो हमारे शहर मे घटी थी।यूँ तो इस से भी दर्दनाक एक घटना मुझे अब भी याद है जब सारे शहर मे चुल्हे नहीं जले थे। पटियाला के एक स्कूल के बच्चे छुटियाँमनाने पिकनिक पर भाखडा डैम आये थे । यहां सत्लुज दरिया मे वोटिंग कर रहे थे कि नाव पलट गयी बच्चे उस मे शरारतें कर रहे थे जिस से नाव का संतुलन बिघड गया और सभी बच्चे दरिया मे गिर गये। उसमे लगभग 25-30 बच्चे थे -4-5 को तो उसी समय बचा लिया गया मगर बाकी बच्चे डूब गये भाखडा डैन के गोता खोर उनकी लाशें ढूँढ 2 कर ला रहे थे और सारा शहर दरिया के किनारे जमा था। बच्चों के परिजन भी वहां पहुँचने लगे थे ये हृ्दय्विदारक सीन देख कर सब की आँखों मे आँसू थे। उस दिन हम लोग भी छुटी के बाद घर नहीं गये । परिजनों का विलाप आज भी कानों मे उसी तरह गूँजता है कोई अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा भी था। ऐसी कितनी ही घटनायें जो सामने घटी आज भी इसी तरह आँखों मे हैं अभी एक भूलती नहीं कि और घट जाती है। आज से 15 दिन पहले भी एक घटना हुयी। कुछ दोस्तों ने प्रोग्राम बनाया कि दशहरा पर सभी दोस्त नंगल मे एक दोस्त के घर इकठे होंगे और पिकनिक मनायेंगे ।इस शहर के 6-7 दोस्तों ने इकठे ही इस साल इन्जनीयरिंग पास की थी। इनका एक दोस्त करनाल से आया था। इसकी अभी कुछ दिन पहले ही नौकरी लगी थी। सभी दोस्त भाखडा देखने के बाद वोटिंग करने लगे। करनाल वाला दोस्त वोट के किनारे के उपर च्ढ कर बैठ गया गोबिन्द सागर झील बहुत बडी है। अचानक एक पानी की लहर ने जओसे ही उसे छुया वो अपना संतुलन खो बैठा और झील मे गिर गया। वोट मे कोई सुरक्षा के उपकरण भी नहीं थे। आज तक उसकी लाश नहीं मिली। माँ=बाप कितने दिन से भटक रहे हैं। उनका एक यही बेटा और एक बेटी है। बेचारे इतनी दूर बेटे की लाश के लिये बैठे हैं।ास्पताल के एक डक्टर ने उन्हें अपने घर ठहराया है। ऐसी कितनी ही मौतें देखने सुनने मे आती हैं। जो कई दिन तक दिल से जाती नहीं तब लगता है कि अपना दुख उसके दुख से छोटा है।
() निर्मला कपिला
behad dukhad magar honhar ke aage majboor ho jata hai insaan.
ReplyDeletebahut dukhad purn hai yah ...
ReplyDeleteohhhhh... bhagwaan sadgat ki aatma ko shaanti pradaan kare...!
ReplyDeleteजब संस्मरण को पढ रही थी तो निर्मलाजी याद आ रही थी कि नंगल में तो वही रहती हैं। फिर देखा कि अरे यह तो उन्हीं का संस्मरण है। आप सच कह रही हैं जब दुनिया को देखते हैं तो अपने दुख तो बौने लगने लगते हैं।
ReplyDeleteजो कई दिन तक दिल से जाती नहीं तब लगता है कि अपना दुख उसके दुख से छोटा है।
ReplyDeleteदिल को झकझोड़ देने वाला संस्मरण
bahut hi dukhad ghatna, sabke dukh ko apana samajh lene se hi apana dukh kam hota hai. kah na dukh baante sukh hot hai , sukh baten dukh hoy.
ReplyDeleteनिर्मला जी आपका संस्मरण पढ़कर आँखे नम हो गई... हम भी जब घर के बाहर निकलते हैं.. बाहर पसरी हुई गरीबी, बदहाली, बेहाली देख लगता है कि हम काफी अच्छी स्थिती में हैं... अपना दुःख सदैव कम लगता है... सजीव लिखा है आपने.
ReplyDeleteनिर्मला दी
ReplyDeleteसंसमरण पढ़कर आँखे भर आई |
दिल को झकझोड़ देने वाला संस्मरण
ReplyDeleteबहुत दुखद घटना की याद दिला दी ....सही कहा है कि सबको अपने ही कष्ट ज्यादा बसे लगते हैं ...कभी दूसरे के दुखों को भी महसूस कर देखना चाहिए ..
ReplyDeleteबहुत दुखद...ईश्वर किसी को ऐसे दिन न दिखाये.
ReplyDeleteबहुत दुखद सच अपने दुःख कितने कम हैं.
ReplyDeleteishwar sach mai aise din kisi ko na dikhaye
ReplyDeleteयही पाया है मैने भी...और हर बार लगता है हम तो उनसे बेहतर स्थिती में है...अगर हम वहाँ होते शायद ये सहन नहीं कर पाते ...
ReplyDeleteगणेशचतुर्थी और ईद की मंगलमय कामनाये !
ReplyDeleteइस पर अपनी राय दे :-
(काबा - मुस्लिम तीर्थ या एक रहस्य ...)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_11.html
यह घटना पहले निर्मला जी के ब्लॉग पर पढ़ी थी। दुखद है लेकिन नियति शायद यही है, निर्मला जी अभी हाल ही में एक और दुखद पारिवारिक घटना से गुजरी हैं। हर दुख का इलाज वक्त और सकारात्मक सोच ही है।
ReplyDeleteऔरों का ग़म देखा तो मैं अपना ग़म भूल गया ...
ReplyDeleteकई बार महसूस होता है यह ...!
मार्मिक !
ReplyDeleteदिल को खरोंचता हुआ संस्मरण.....