कहते तो हैं ' कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त , सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया ...' सच है दर्द की हदों से गुज़रता व्यक्ति अपनी सोच खो देता है और पूरी ज़िन्दगी उसे बेमानी लगती है - सबके हिस्से का अपना-अपना दर्द है ! पर जब एक बार हम उस पर नज़र डालते हैं तो वही दर्द अपना मरहम बन जाता है -रश्मि प्रभा



अपना दुख जब छोटा लगता है (संस्मरण )




कभी कभी किसी का दुख देख कर अपना दुख बहुत छोटा सा लगने लगता है इस लिये सब के साथ कोई दुखदायी घटना बाँटने से शायद आपको भी लगी कि आपका कोई दुख किसी से बहुत छोटा है। जो बहुत दिन पहले की घटना है जो हमारे शहर मे घटी थी।यूँ तो इस से भी दर्दनाक एक घटना मुझे अब भी याद है जब सारे शहर मे चुल्हे नहीं जले थे। पटियाला के एक स्कूल के बच्चे छुटियाँमनाने पिकनिक पर भाखडा डैम आये थे । यहां सत्लुज दरिया मे वोटिंग कर रहे थे कि नाव पलट गयी बच्चे उस मे शरारतें कर रहे थे जिस से नाव का संतुलन बिघड गया और सभी बच्चे दरिया मे गिर गये। उसमे लगभग 25-30 बच्चे थे -4-5 को तो उसी समय बचा लिया गया मगर बाकी बच्चे डूब गये भाखडा डैन के गोता खोर उनकी लाशें ढूँढ 2 कर ला रहे थे और सारा शहर दरिया के किनारे जमा था। बच्चों के परिजन भी वहां पहुँचने लगे थे ये हृ्दय्विदारक सीन देख कर सब की आँखों मे आँसू थे। उस दिन हम लोग भी छुटी के बाद घर नहीं गये । परिजनों का विलाप आज भी कानों मे उसी तरह गूँजता है कोई अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा भी था। ऐसी कितनी ही घटनायें जो सामने घटी आज भी इसी तरह आँखों मे हैं अभी एक भूलती नहीं कि और घट जाती है। आज से 15 दिन पहले भी एक घटना हुयी। कुछ दोस्तों ने प्रोग्राम बनाया कि दशहरा पर सभी दोस्त नंगल मे एक दोस्त के घर इकठे होंगे और पिकनिक मनायेंगे ।इस शहर के 6-7 दोस्तों ने इकठे ही इस साल इन्जनीयरिंग पास की थी। इनका एक दोस्त करनाल से आया था। इसकी अभी कुछ दिन पहले ही नौकरी लगी थी। सभी दोस्त भाखडा देखने के बाद वोटिंग करने लगे। करनाल वाला दोस्त वोट के किनारे के उपर च्ढ कर बैठ गया गोबिन्द सागर झील बहुत बडी है। अचानक एक पानी की लहर ने जओसे ही उसे छुया वो अपना संतुलन खो बैठा और झील मे गिर गया। वोट मे कोई सुरक्षा के उपकरण भी नहीं थे। आज तक उसकी लाश नहीं मिली। माँ=बाप कितने दिन से भटक रहे हैं। उनका एक यही बेटा और एक बेटी है। बेचारे इतनी दूर बेटे की लाश के लिये बैठे हैं।ास्पताल के एक डक्टर ने उन्हें अपने घर ठहराया है। ऐसी कितनी ही मौतें देखने सुनने मे आती हैं। जो कई दिन तक दिल से जाती हीं तब लगता है कि अपना दुख उसके दुख से छोटा है।
() निर्मला कपिला

18 comments:

  1. behad dukhad magar honhar ke aage majboor ho jata hai insaan.

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  2. ohhhhh... bhagwaan sadgat ki aatma ko shaanti pradaan kare...!

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  3. जब संस्‍मरण को पढ रही थी तो निर्मलाजी याद आ रही थी कि नंगल में तो वही रहती हैं। फिर देखा कि अरे यह तो उन्‍हीं का संस्‍मरण है। आप सच कह रही हैं जब दुनिया को देखते हैं तो अपने दुख तो बौने लगने लगते हैं।

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  4. जो कई दिन तक दिल से जाती नहीं तब लगता है कि अपना दुख उसके दुख से छोटा है।

    दिल को झकझोड़ देने वाला संस्मरण

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  5. bahut hi dukhad ghatna, sabke dukh ko apana samajh lene se hi apana dukh kam hota hai. kah na dukh baante sukh hot hai , sukh baten dukh hoy.

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  6. निर्मला जी आपका संस्मरण पढ़कर आँखे नम हो गई... हम भी जब घर के बाहर निकलते हैं.. बाहर पसरी हुई गरीबी, बदहाली, बेहाली देख लगता है कि हम काफी अच्छी स्थिती में हैं... अपना दुःख सदैव कम लगता है... सजीव लिखा है आपने.

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  7. निर्मला दी
    संसमरण पढ़कर आँखे भर आई |

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  8. दिल को झकझोड़ देने वाला संस्मरण

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  9. बहुत दुखद घटना की याद दिला दी ....सही कहा है कि सबको अपने ही कष्ट ज्यादा बसे लगते हैं ...कभी दूसरे के दुखों को भी महसूस कर देखना चाहिए ..

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  10. बहुत दुखद...ईश्वर किसी को ऐसे दिन न दिखाये.

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  11. बहुत दुखद सच अपने दुःख कितने कम हैं.

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  12. ishwar sach mai aise din kisi ko na dikhaye

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  13. यही पाया है मैने भी...और हर बार लगता है हम तो उनसे बेहतर स्थिती में है...अगर हम वहाँ होते शायद ये सहन नहीं कर पाते ...

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  14. गणेशचतुर्थी और ईद की मंगलमय कामनाये !



    इस पर अपनी राय दे :-
    (काबा - मुस्लिम तीर्थ या एक रहस्य ...)
    http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_11.html

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  15. यह घटना पहले निर्मला जी के ब्‍लॉग पर पढ़ी थी। दुखद है लेकिन नियति शायद यही है, निर्मला जी अभी हाल ही में एक और दुखद पारिवारिक घटना से गुजरी हैं। हर दुख का इलाज वक्‍त और सकारात्‍मक सोच ही है।

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  16. औरों का ग़म देखा तो मैं अपना ग़म भूल गया ...
    कई बार महसूस होता है यह ...!

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  17. मार्मिक !
    दिल को खरोंचता हुआ संस्मरण.....

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