दुःख की सरहदों पर अपने-अपने दर्द को लिए हम दोस्त हैं ...जहाँ रहती है आंसुओं की मौन भाषा , अपने - अपने हिस्से को खोने की ख़ामोशी ,ख़ामोशी - सिर्फ ख़ामोशी , जहाँ होती हैं शेष अनकही बातें ....रश्मि प्रभा |
---|
!! कोई संवाद शेष है !!
कैंप के बाहर '
सुबह जब मैं कॉफ़ी का मग थामे
चहल-कदमी करते
चुस्कियां लेते,
पेड़ की पत्तियों में छिपी बुलबुल तेरा गीत सुनता था ,
तो न जाने क्यों मुझे लगता था
कि कोई संवाद होना अभी शेष है
और हमारे बीच कोई सूत्र एक है!!
आज जब मेरा सीना चीर कर
दुश्मन की गोलियां आर-पार हो गयीं हैं
और मेरी सांसे कुछ शेष रह गयी हैं .
तो बुलबुल...
वह सूत्र मेरे हाथ लग गया है ,
और संवाद अब ओंठ पर ढरक गया है.
मैं अपने संवाद तेरे गीतों में पिरोना चाहता हूँ ,
एक ख़त तेरे परों पर उंकेरना चाहता हूँ .
मगर तुम बारूद के आकाश से डर कर
चाँद की टहनी पर जा बैठी हो !
और हताश इस सूत्र को शून्य में ढूंढ़ रही हो !
मैं गाँव, घर ,डगर पीछे छोड़ आया था
पर हर छूटा लमहा तेरे गीत में पाया था .
तेरे गीत
माँ की टुहुक-से ममता भरे थे .
तुम्हारे गीत पत्नी की चिहुक -से प्रेम भरे थे .
तुम्हारे गीत बेटी की किलक-से बचपन भरे थे !
तुम चाँद छोड़ मेरी बांहों के नीड़ में आओ .
डर छोड़कर , संदेशों के तिनके ले जाओ .
मरने से पहले बड़ी याद आई है
वह गुलमोहर - उसकी छाँव !
छाँव में बसा महकता मेरा गाँव !
रहट-रहट मेरी सांस हुई !
छलक-छलक शेष आस हुई !
तू इन आस के तिनकों को
अपनी चोंच में दबा
हौले से ले जाना !
गुलमोहर की डाली पर!
लाल-लाल फूलों पर !
किसलय पत्तों पर !
घर के छप्पर पर !
द्वार-गली पर!
माँ के आँचल पर!
पत्नी की चूड़ी पर!
बिटिया के ओठों पर!
संवाद बना छोड़ आना
मेरी पार्थिव देह तिरंगे में
जब राजधानी आये -
तो बुलबुल
तू वहीँ-कहीं छाँव में
एक राग छेड़ना-
जिसमे टुहुक-टुहुक
चिहुक-चिहुक
किलक-किलक
यादों का राग हो
देश-रागिनी से दूर
अपना संसार हो!
() अपर्णा
मैं-
अपर्णा भटनागर
दिल्ली पब्लिक स्कूल, अहमदाबाद में अध्यापिका रह चुकी हूँ
काव्य रचना 'मेरे क्षण' रोयल पब्लिकेशन, जोधपुर से प्रकाशित हो चुकी है .
वर्तमान में गृहिणी तथा स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य से जुडी हुई हूँ अंतरजाल पर प्रकाशित विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है.
आपकी रचना दिल मे उतर गयी………………बेहतरीन भावाव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर नमन।
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति ..बहुत बढ़िया
ReplyDeleteअतिसुन्दर.
ReplyDeleteshandaar.........:)
ReplyDeleteअपर्णा जी!
ReplyDeleteसंवेदना के साथ चलती बहुत ही कोमल भावाभिव्यक्ति!
कृपया अपने परिचय के साथ अपने ब्लॉग का पता भी डाल दिया करें, जिससे सुधि पाठकों को आपकी रचनाएँ पढने को मिल सकें...
शुभकामनाएं.........
aparna jee,
ReplyDeletebahut sundar dil ko chhone vali rachana.
shubakaamanayen.
बहुत सुन्दर भाव लिए अच्छी कविता ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगी यह अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमेरी पार्थिव देह तिरंगे में
ReplyDeleteजब राजधानी आये -
तो बुलबुल
तू वहीँ-कहीं छाँव में
एक राग छेड़ना-
जिसमे टुहुक-टुहुक
चिहुक-चिहुक
किलक-किलक
यादों का राग हो
देश-रागिनी से दूर
अपना संसार हो!
आँखें नम हो गयी। बहुत अच्छी लगी रचना अप्र्णा जी को बधाई।
bhn ji andaz nyaa or bhtrin he shi khaa snvaad bhut bhut baaqi hen kyonki aapki in pnktiyon ke liyen kin shbdon men bdhaayi ka snvaad qaaym krun mere pas alfaaz nhin hen . akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteजिसमे टुहुक-टुहुक
ReplyDeleteचिहुक-चिहुक
किलक-किलक
यादों का राग हो
देश-रागिनी से दूर
अपना संसार हो!
bahut sunder abhivaykti
क्या बात है..उम्दा रचना.
ReplyDeleteसंवेदनशील अभिव्यक्ति ..!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना, ...फिर कोई संवाद शेष नहीं रहता !
ReplyDeleteek shaandar rachna
ReplyDeleteek sarhad pe apni kurbani dene wale sipahai ki antraatma ka bulbul se sambaad, sach me man ke andar tak utar gayi aapki ye kavita
aapko salaam
Bahut hi khoobsurat... dil mein utar gayi!
ReplyDeleteBahut hi khoobsurat... dil mein utar gayi!
ReplyDelete