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नाम --रंजना (रंजू )भाटिया
जन्म--- १४ अप्रैल १९६३
शिक्षा-- बी .ऐ .बी .एड
पत्रकारिता में डिप्लोमा
अनुभव ---१२ साल तक प्राइमरी स्कूल में अध्यापन
दो वर्ष तक दिल्ली के मधुबन पब्लिशर में काम जहाँ प्रेमचन्द के उपन्यासों और प्राइमरी हिंदी की पुस्तकों पर काम किया सम्राट प्रेमचंद के उपन्यासों की प्रूफ़-रीडिंग और एडीटिंग का अनुभव प्राप्त हुआ।
प्रकाशन -- प्रथम काव्य संग्रह "साया" सन २००८ में प्रकाशित
दैनिक जागरण ,अमर उजाला ,नवभारत टाइम्स ऑनलाइन भाटिया प्रकाश मासिक पत्रिका आदि में लेख कविताओं का प्रकाशन ,हिंदी मिडिया ऑनलाइन ब्लॉग समीक्षा
लेखन --कविता नारी ,सामाज विषयक लेखन के साथ बाल साहित्य लिखने में विशेष रूचि वह नियिमत रूप से लेखन जारी है इन्टरनेट के माध्यम से हिंदी से लोगों को जोड़ने तथा हिंदी में लिखने के लिए प्रोत्सहित करने में विशेष रूचि फिलहाल कई ब्लॉग पर नियमित लेखन अपना ब्लॉग कुछ मेरी कलम से बहुत लोकप्रिय है इस ब्लॉग को अहमदाबाद टाइम्स और इकनोमिक टाइम्स ने विशेष रूप से कवर किया है इ पत्रिका साहित्य कुञ्ज पर लेखन और वर्ड पोएटिक सोसायटी की सदस्य
उपलब्धियां :
2007 तरकश स्वर्ण कलम विजेता
२००९ में वर्ष की सर्व श्रेष्ठ ब्लागर
२००९ में बेस्ट साइंस ब्लागर एसोसेशन अवार्ड
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!!एक यात्रा !!
...............
कहाँ है
अब वह
प्रकति के सब ढंग
धरती के ,पर्वत के
सब उड़ गए हैं रंग
पिछले दिनों हिसार जाना हुआ यह रास्ता मुझे वैसे भी बहुत भावुक कर देता है रोहतक जहाँ बचपन बीता उसके साथ लगता कलानौर जहाँ जन्म लिया ..क्या वह घर अब भी वैसा होगा .कच्चा या वहां भी कुछ नया बन गया होगा ..बाग़ खेत ..कई यादे एक साथ घूम जाती है ..दिल्ली के कंक्रीट जंगल से कुछ पल सिर्फ़ राहत मिल जाती है और लगता है कि अभी भी कोई कोना तो है दिल्ली के आस पास जो कुछ हरियाला है ..मेट्रो के कारण दिल्ली जगह जगह से उधडी हुई है .एक जगह से दूसरी जगह जाने में एक युग सा लगता है ..वही हुआ बस तो आई एस बी टी से ही मिलनी थी ,जिसने दिल्ली से बाहर निकलते निकलते ही ३ घंटे लगा दिए ...और उसके बाद का रास्ता ही सिर्फ़ तीन घंटे का है .रोहतक तक आते आते अब खेत कुछ कम दिखायी देते हैं वहां भी अब ओमेक्स के फ्लेट्स का बोर्ड लहरा रहा है नींव तो पड़ ही चुकी है एक और कंक्रीट के जंगल की ......मन में चिंता होती है कि यूँ ही सब मकान बनते रहे तो खेत कहाँ रहेंगे और खेत नही रहेंगे तो खाने को क्या मिलेगा पर रोहतक से हिसार के दूर दूर तक फैले पीले सरंसों के फूल ,गेहूं की नवजात बालियाँ यह आश्वासन देती लगती है कि चिंता मत करो अभी हम है ,पर कब तक यह कह नही सकते...तभी बीडी के धुएँ से बस के अन्दर ध्यान जाता है .हरियाणा की बस है सो कम्बल लपेटे बेबाक से कई ताऊ जी बैठे हैं .कुछ ताई जी भी हैं जो अभी भी हाथ भर घूँघट में हैं पर उनकी आँखे बाहर देख रही रही ..दिल्ली से एक लड़के को सीट नही मिली है और रोहतक से आगे बस आ चुकी है ,वह सीट के साथ बैठे ताऊ को थोड़ा अपना कम्बल समेट लेने को कहता है ,जिस से वह वहां बैठ सके .पर ताऊ बड़ी सी हम्बे कर कर कहता है कि "थम जा अभी महम आने पर मैं उतारूंगा तब यहाँ बैठ लीजो .".और शान से अपनी बीडी का धुंआ फेंकता है जो सीधे मेरी तरफ़ आता है और मैं रुमाल से अपन नाक बंद कर लेती हूँ ...लगता है कि इसको कुछ कहूँ पर लड़के को दिये जवाब से चुप हो जाती हूँ ...और ब्लागेर ताऊ जी की इब खूंटे पर याद करके मुस्कराने लगती हूँ ...ताऊ जी के लिखे कई कारनामे याद आने लगते हैं ...ब्लागिंग से जुड़े कई काम याद आने लगते हैं ..महम आ गया है और वह ताऊ जी उतर गए हैं ...लड़का लपक के वह सीट ले लेता है ..बस फ़िर आगे को भागने लगती है ...तभी मेरे सेल की घंटी बजती है और बहन पूछती है कि कहाँ तक पहुँची तुम .महम से बस निकल चुकी है कुछ ही देर हुई है ..मैं कहती हूँ कि हांसी आने वाला है पहुँच जाउंगी कुछ देर में ..तभी आगे की सीट पर उंघती महिला एक दम से चौकस हो जाती है और खिड़की से बाहर देख कर मेरी तरफ़ देख के कहती है अभी हांसी दूर है ..उन्होंने शायद वहीँ उतरना है इस लिए एक दम से चौंक गई है ...सेल पर मेरी बात सुन कर ..मैं कुछ सोच कर मुस्करा देती हूँ ...आगे बैठा लड़का अब शायद अपनी गर्ल फ्रेंड से बात कर रहा है ..सेल पर उसकी आवाज़ तेज है जो सुनाई दे रही है किसी बात पर मनाने की कोशिश है आवाज़ में बेचारगी है पर चेहरे पर आक्रोश है .अभी अभी आँखों में खिले सपने हैं ..उसको देख कर नजर फेर लेती हूँ कहीं मेरेयूँ देखने से वह परेशान न हो जाए पर मेरे कान उसकी बातो को न चाहते हुए भी सुनते रहते हैं ...और फ़िर कुछ देर पहले उस औरत पर जो मुस्करहट आई थी वह अपने ऊपर आ जाती है मानव स्वभाव से मजबूर है .क्या करें ...
वापसी पर भी वही सब है भरी बस ,कम्बल लपेटे ताऊ जी आधे घूँघट में ताई जी और बीडी का धुंआ जो रोहतक आते आते उतर जाते हैं .....हिसार से रोहतक तक तेज रफ़्तार और दिल्ली की शुरुआत होते ही वही कंक्रीट के जंगल ..मेट्रो का रास्ता बनाते मजदूर .बस अड्डे से ऑटो ले कर घर का रास्ता तय हो ही रहा होता है रास्ते में कई झुग्गियां टूटी हुई है ..यहाँ पर अब मेट्रो का रास्ता बनेगा .फ़िर यह मजदूर और कागज़ बीनने वाले कहाँ रहेगे ? ठण्ड भी कितनी है बारिश भी हो रही है ...उनके टूटे घरों में चूल्हा जल रहा है शायद खाने पीने का कम जल्दी से ख़त्म कर के सोने की कोई जगह तलाश करेंगे तभी एक जोर की ब्रेक ले कर ऑटो एक दम से घूम जाता है सामने के नजारा देख कर मेरी रूह कांप जाती है .एक बाइक वाले ने सीधे जाते जाते एक दम से यू टर्न ले लिया था उसको बचाने के चक्कर में ऑटो वाले ने एक दम से ब्रेक लागने की कोशिश की और एक ब्लू लाइन बस हमारे ऑटो को छूती हुई निकल गई ..यानी कुछ पल यदि नही संभलते तो अपना टिकट ऊपर का काटने वाला था ...मन ही मन जय श्री कृष्ण और बाबा जी का शुक्रिया अदा करती हूँ ,और रास्ते में फ़िर से टूटी झुग्गियों को देख कर सोचती हूँ कि इतनी ठण्ड में यह अब कैसे रहेंगे ...कुछ समय पहले लिखी अपनी कुछ पंक्तियाँ याद आने लगती है ..
दिख रहा है ......
जल्द ही
दिल्ली का नक्शा बदल जायेगा
खेल कूद के लिए ख़ुद रहा है
दिल्ली की सड़कों का सीना
हर तरफ़ मिटटी खोदते
संवारते यह हाथ
न जाने कहाँ खो जायंगे
सजाती दिल्ली को
यह प्रेत से साए
गुमनामी में गुम हो जायेंगे
घने ठंड के कुहरे में
दूर गावं से आए यह मजदूर
फटे पुराने कपडों से ढकते तन को
ख़ुद को दे सके न चाहे एक छत
पर आने वाले वक्त को
मेट्रो और सुंदर घरों का
एक तोहफा
सजा संवार के दे जायेंगे !!
() रंजना (रंजू) भाटिया
रंजना जी, ताऊ के साथ जी लगाना वो भी हरियाणा में? अच्छी रपट है, लेकिन अपने गाँव के बारे में भी कुछ लिखा होता तो और अच्छा लगता।
ReplyDeleteबेहद उम्दा प्रस्तुति।
ReplyDeleteachhi prastuti, shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteapne sansmaran me pura bus ke yatri ki rapat likh di.........ranjana jee, galat baat kisi ke cell ki awaj nahi sunani chahiye..:P
ReplyDeleteumda prastuti!! umda kavita!!
सुंदर परिचय. सुंदर संस्मरण और उतनी ही सुंदर सरोकार वाली कविता. वट वृक्ष पर सुंदर प्रस्तुति .
ReplyDeleteबहुत सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है! शानदार पोस्ट!
ReplyDeleteएक यात्रा का उम्दा चित्रण ...!
ReplyDeleteसही कहा आपने रंजू जी ...
कहाँ है
अब वह
प्रकति के सब ढंग
धरती के, पर्वत के
सब उड़ गए हैं रंग ...!
बहुत जीवंत तरीके से यात्रा का वर्णन किया ...और कविता सटीक ...मजुदुर की नियति दिख रही है ...
ReplyDeleteFor some reason, after reading the above essay, I was reminded of Aravind Adiga's The White Tiger. The White Tiger is a work of fiction but portrays the dark underbelly of a growing metropolis full of the rich and the famous beautifully. This essay touches nicely on the dark underbelly of a shining metropolis.
ReplyDeleteबहुत ही सजीव चित्रण, गहरे भावों के साथ्ा बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteगाँव कि याद ..........
ReplyDeleteमाने - सरसों का साग जो उपले के धुएं से कुछ और ही स्वाद देता है.......
ये तो रीत है दुनिया की ... ताजमहल को बनाने वालों को आज कौन याद रखता है ...
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है ...
बहुत बढ़िया लगा पढ़कर.
ReplyDeletedilli ke bare me kavita
ReplyDeleteshresth he aapki, yatra varnan bhi rochak raha
delhi ki vastvik kahani ...
ReplyDeleteएक यात्रा सड़क की और एक मन की ..अच्छी लगी ..!
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