ग़ज़ल :
कभी आका कभी सरकार लिखना
हमें भी आ गया किरदार लिखना
ये मजबूरी है या व्यापार , लिखना
सियासी जश्न को त्यौहार लिखना
हमारे दिन गुज़र जाते हैं लेकिन
तुम्हें कैसी लगी दीवार, लिखना
गली कूचों में रह जाती हैं घुट कर
अब अफवाहें सरे बाज़ार लिखना
तमांचा सा न जाने क्यों लगा है
वतन वालों को मेरा प्यार लिखना
ये जीवन है कि बचपन की पढाई
एक एक गलती पे सौ सौ बार लिखना
कुछ इक उनकी नज़र में हों तो जायज़
मगर हर शख्स को गद्दार लिखना ?
हमें भी आ गया किरदार लिखना
ये मजबूरी है या व्यापार , लिखना
सियासी जश्न को त्यौहार लिखना
हमारे दिन गुज़र जाते हैं लेकिन
तुम्हें कैसी लगी दीवार, लिखना
गली कूचों में रह जाती हैं घुट कर
अब अफवाहें सरे बाज़ार लिखना
तमांचा सा न जाने क्यों लगा है
वतन वालों को मेरा प्यार लिखना
ये जीवन है कि बचपन की पढाई
एक एक गलती पे सौ सौ बार लिखना
कुछ इक उनकी नज़र में हों तो जायज़
मगर हर शख्स को गद्दार लिखना ?
कभी आका कभी सरकार लिखना
ReplyDeleteहमें भी आ गया किरदार लिखना
bahot sunder......
कभी आका कभी सरकार लिखना
ReplyDeleteहमें भी आ गया किरदार लिखना
वाह बहुत खूब
वाह! वाह! आनंद आ गया....
ReplyDeleteशानदार ग़ज़ल...
सर्वत जमाल साहब को बधाई....
सरवत भाई को पढ़ना एक अद्भुत रोमांच का कारक बनता है। सरसरी नज़र से देखने पर यूं तो जीवनाधारित अति सामान्य बातें होती हैं इनकी ग़ज़लों में, पर इन अति सामान्य बातों को जिस सहजता से उकेर देते हैं सरवत भाई शब्दों में, वो वाक़ई बहुत मुश्किल है। बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं। इनकी ग़ज़ल पढ़ कर कुछ न कुछ अन्तर्मन पर अंकित हो जाता है अवश्य ही। इन्हें यहाँ पढ़ कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteक्या बात है, बहुत सुंदर
ReplyDeleteवाकई, क्या बात हैं?
ReplyDeletebehtreen prstuti.....
ReplyDeleteये जीवन है कि बचपन की पढाई
ReplyDeleteएक एक गलती पे सौ सौ बार लिखना
वाह!
बेहतरीन गज़ल।
ReplyDeleteमैं तो यहाँ आ कर फंस गया. अब अपनी ही लिखत-पढत पर क्या लिखूं, यह कठिन मामला है. फ़िलहाल, सभी का शुक्रगुज़ार हूँ कि नाचीज़ को सराहा आप लोगों ने....बहुत बहुत शुक्रिया.
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