मैंने-
पहले भी तो बांटी थी
तुम्हारे अकेलेपन की शाम
जेठ की तपती धुप
और गर्म सांसें
तुम्हारे सुख के लिए ..
मगर-
तुम्हारी नर्म उंगलियाँ
नहीं खोल पायी थी
मेरे मन की कोई गाँठ
एक बार भी .
एक बार भी-
सर्पीली सडकों पर सफ़र करते हुए
तुम्हारे पाँव नहीं डगमगाए थे
और मैं-
पहाड़ों की तरह
पिघलता रहा सारा दिन/सारी रात
तुम्हारे साथ-साथ ...!
रवीन्द्र प्रभात
www.parikalpnaa.com
बहुत सुन्दर अहसास .. सुन्दर कविता
ReplyDeleteयह कविता अच्छी लगी।
ReplyDeleteमैं-
ReplyDeleteपहाड़ों की तरह
पिघलता रहा सारा दिन/सारी रात
तुम्हारे साथ-साथ ...!
sundar ahsaas
बहुत खूबसूरत अहसास्।
ReplyDeleteप्रेम में ऐसा ही होता है...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,बहुत खूब !
ReplyDeleteसुन्दर और सारगर्भित कविता ,अच्छी लगी !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,बहुत खूब !
ReplyDeleteकविता अच्छी लगी।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,बहुत सुन्दर अहसास...
ReplyDeleteसर्पीली सड़कों पर सफर करते हुए हुए
ReplyDeleteतुम्हारे पाँव नहीं डगमगाये थे
और मैं
पहाड़ों की तरह पिघलता रहा सारा दिन /सारी रात
तुम्हारे साथ-साथ ...
वाह बहुत खूब लिखा है आपने बहुत ही सुंदर जज़बात समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/11/blog-post_20.html
khoobsurat..
ReplyDeleteसुंदर कविता रवीन्द्र जी की, बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeletekomal bhavon ki sundar prastuti.
ReplyDeleteखूबसूरत अहसास शब्दों में ढले
ReplyDeleteसुन्दर कविता...
सादर...