सहना , सहते जाना जुर्म है
वजह है घाव के गहरे होने का
दोष अपना
सिर्फ अपना है ....
रश्मि प्रभा
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वेदना
खेल-खेल में राहगीर
तोड़ लेते हैं टहनियां,
मसल डालते हैं पत्ते,
बच्चे फेंक जाते हैं मुझपर
पत्थर यूँ ही...
आवारा पक्षी जब चाहें
बैठ जाते हैं शाखों पर
या बना लेते हैं उनमें घोंसले
बिना पूछे...
बारिशें भिगो जाती हैं,
झिंझोड़ जाती हैं कभी भी,
हवाएं कभी हौले
तो कभी जोर से
लगा जाती हैं चपत
ठिठोली में...
पतझड़ को नहीं सुहाती
मेरी हरियाली, मेरी मस्ती,
कर जाता है मुझे नंगा बेवजह
जाते-जाते...
आखिर मेरा कसूर क्या है?
क्या बस यही
कि मैं सब कुछ
चुपचाप सहता हूँ?
ओंकार
आखिर मेरा कसूर क्या है?
ReplyDeleteक्या बस यही
कि मैं सब कुछ
चुपचाप सहता हूँ?अंतर्मन की वेदना यही पूछती है....
कभी कभी चुपचाप सहते रहना भी दोष बन जाता है ………सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबस यही
ReplyDeleteकि मैं सब कुछ
चुपचाप सहता हूँ?
यह सच है ...।
अच्छी रचना केडिया जी,
ReplyDeleteगृहमंत्रालय में अहम जिम्मेदारी निभाते हुए आप लेखन के लिए वक्त निकालते हैं। वाकई काबिले तारीफ है।
वाह ....बहुत खूब /अति सुंदर
ReplyDeleteसुंदर , अति सुंदर.
ReplyDeleteबहुत ज्यादा सहनशक्ति भी घातक है !
ReplyDeleteसहनशक्ति रखने वाला ही जानता है उस पर क्या बीत रही है.कई बार जिंदगी भी एसे ही बीत जाती है....सहन करते हुए....और किसी को खबर तक नहीं होती .सुन्दरप्रस्तुति
ReplyDeleteप्रतिकार जरूरी है ...
ReplyDeleteप्रतिकार जरूरी है ...
ReplyDeleteदुनिया का उसूल ही यही है जो जितना चुप रेहता है लोग उसे उतना ही सुनाते है और जो जितना झुकता है लोग उसे उतना ही झुकाते हैं जब तक वो टूट न जाये ....बढ़िया प्रस्तुति आभार
ReplyDeleteसहनशीलता का हर कोई इम्तिहान लेता है ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना..
वास्तव में यही जीवन है।
ReplyDeleteउनसे अलग मै रह नहीं सकता, इस बेदर्द जमाने में,
ReplyDeleteमेरी ये मज़बूरी मुझको याद दिलाने आ जाते हैं...
इन सबसे अलग होके अस्तित्व ही कहाँ बचेगा...वैसे भी परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर...
आखिर मेरा कसूर क्या है?
ReplyDeleteक्या बस यही
कि मैं सब कुछ
चुपचाप सहता हूँ?
सही है .. अच्छी भावाभिव्यक्ति !!
behtreen prstuti...
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