प्रेम , आस्था - दोनों का संबंध आत्मा से है
आत्मा पर हुकूमत नहीं चलती
जब हुकूमत हो
तो फिर आत्मा कहाँ
प्रेम और आस्था कहाँ .........

रश्मि प्रभा




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कुफ्र

मैं प्रेम करना चाहता था ईश्वर से
बिना डरे बिना झुके
पर इसका कोई वैध तरीका स्थापित ग्रंथो में नहीं था

वहाँ भक्ति के दिशा–निर्देश थे
लगभग दास्य जैसे
जिन पर रहती है मालिक की नजर

मेरे अंदर का खालीपन मुझे उकसाता
उसकी महिमा का आकर्षण मुझे खींचता
जब-तब घिरता अँधेरे में उसकी याद आती आदतन
मैं समर्पित होना चाहता था
अपने को मिटाकर एकाकार हो जाना चाहता था
पर यह तो अपने को सौंप देना था किसी धर्माधिकारी के हाथों में

मैंने कुछ अवतारों पर श्रद्धा रखनी चाही
कृष्ण मुझे आकर्षित करते थे
उनमें कुशल राजनीतिज्ञ और आदर्श प्रेमी का अद्भुत मेल था
पर जब भी मैं सोचता
भीम द्वारा दुर्योधन के टांग चीरने का वह दृश्य मुझे दिखता
पार्श्व में मंद –मंद मुस्करा रहे होते कृष्ण
मुझे यह क्रूर और कपटपूर्ण लगता था

उस अकेले निराकार तक पहुचने का रास्ता
किसी पैगम्बर से होकर जाता था जिसकी कोई-न-कोई किताब थी
यह ईश्वर के गुप्त छापेखाने से निकली थी
जो अक्सर दयालु और सर्वशक्तिमान बताया जाता था
और जिसके पहले संस्करण की सिर्फ पहली प्रति मिलती थी
इसका कभी कोई संशोधित संस्करण नहीं निकलना था
शायद ईश्वर के पास कुछ कहने के लिए रह नहीं गया था
या उसकी आवाज़ लोगों ने सुननी बंद कर दी थी

उससे डरा जा सकता था या डरे-डरे समर्पित हुआ जा सकता था

अप्सराओं से भरे उस स्वर्ग के बारे में जब भी सोचता
मुझे दीखते धर्म-युद्धों में गिरते हुए शव
हिंसा और अन्याय के इस विशाल साम्रज्य में
जैसे वह एक आदिम लत हो

मठ और महंतो से परे
उस ईश्वर से प्रेम करने का क्या कोई रास्ता है
और क्या उसकी जरूरत भी है

अपने श्रम के अतिरिक्त क्या चाहिए मुझे ?

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अरुण देव

18 comments:

  1. बहुत ही गहरे उतरते शब्‍दों का संगम है यह अभिव्‍यक्ति ...।

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  2. बहुत बढिया।
    सच तो ये है कि ऐसी रचनाएं कम ही पढने को मिलती हैं।

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  3. kya bhaw hai.....kya shabd hain.....wah.

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  4. ek aisaa prashn jo shayad kabhi n kabhi sabhi ke man men uthta hoga

    nayapan liye hue is rachna ke liye badhai Arun ji

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  5. गहन अभिव्यक्ति..

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  6. kya kahe ...shabd nahi hai....umda prastuti

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  7. गहरे भावो का समावेश्।

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  8. अपने श्रम के अतिरिक्त क्या चाहिए मुझे ?

    बेहतरीन रचना सार्थक परिणति

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  9. "अपने श्रम के अतिरिक्त क्या चाहिए मुझे ?"
    बहुत सुंदर भाव ।

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  10. 'मठ और महंतों से परे / उस ईश्वर से प्रेम करने का क्या कोई रास्ता है / और क्या उसकी ज़रूरत भी है / अपने श्रम के अतिरिक्त क्या चाहिए मुझे?' धर्म के जंजाल से मुक्त होने के लिए ये बीज प्रश्न बन गए हैं कविता में.

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  11. कवि के विचारों का मंथन संदेह और ग्रंथों में लिखी कुनीति क्रूरता से कवि प्रभावित हुवा ..और कविता में उसका आस्था के प्रति वैचारिक मंथन साफ़ उजागर होता है... कर्म को कवि ने उच्च दर्जा दिया ... बहुत खूब.. सुन्दर

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  12. बिल्कुल मन की बात। बहुत ख़ूब।

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  13. अपना भगवान् हम खुद बनाते हैं...इसीलिए कहा गया है...जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी...जिसे श्रम पर विश्वास है...उसे वाकई भगवान् की जरुरत नहीं...बहुत ही सुन्दर शब्द और विचार...

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  14. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-701:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  15. saarthak lekhni ....sathe or sidhe shabd jo dil ko chhu gaye

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