(१)
कल
तेरी यादों के तार
जोड़ - जोड़ कर
बुना था एक जाल, और
टांग दिया उसे आसमान में,
कि फसेंगी उसमें
खुशियाँ... ढेर सारी....
आज
बड़ी उम्मीद से
उतारा जब जाल,
फंसा पाया उसमें एक -
भयावह सन्नाटा.... विद्रूप सा...
किंकर्तव्यविमूढ़ अब
देख रहा हूँ सन्नाटे को,
और सन्नाटा मुझको......
(2)
कल
एक पत्थर - मासूम सा...
दिल को अच्छा लगा...
मैंने
कल्पना की औजारें लीं,
उसे तराशा,
और बो दिया
ख़्वाबों के समंदर में,
कमल की तरह...
कि खिलेगा वह
मकायेगा फजां ज़िंदगी की....
मगर!
मेरे ख़्वाबों का
सारा समंदर पीकर भी
वह ना खिला....
आज
बस,
ज़िंदगी है.... सूखी सी.... हक़ीक़तों भरी....
S.M.HABIB (संजय मिश्र 'हबीब ')
बहुत सुन्दर एहसास की रचनाएँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर क्षणिकाएँ .. जाल में फंसा सन्नाटा ..अभी उसी में खोयी हूँ
ReplyDeleteबेहद सुन्दर क्षणिकाएं ...
ReplyDeleteआज ख्वाब नहीं हैं - मेरे पास,
बस,
ज़िंदगी है.... सूखी सी.... हक़ीक़तों भरी....
मर्मस्पर्शी ...
सुन्दर क्षणिकाएँ!
ReplyDeletebhaut hi khubsurat....
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteइन क्षणिकाओं को यहाँ देखना 'प्लीसेंट सरप्राईस' है...
ReplyDeleteसादर आभार दी...
पाठकों/सुधीजनों का आभार....
यादों के तारों के जाल ...
ReplyDeleteफिर सन्नाटे कैसे
या कभी यादें भी सन्नाटा हो जाती है ...
bahut sundar kshanika prastuti hetu aabhar!
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