प्रकृति अपने हर माध्यम से विस्तार लेती है
सागर से सागर तक शाश्वत क्रम में
लहरों के गीत सुनाती है

रश्मि प्रभा


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सागर से सागर तक


तेरी हुंकार भरती लहरें
तट से टकरा कर
लौटते हुए
खुद में समा रही हैं
क्षितिज के पार तक
विस्तार पा रही हैं
जीवन-सच बता रही है.

सूरज की किरणे
सागर जगा रही है,
बादल बना रही हैं,
धरती इशारे से
उन्हें
अपने घर
बुला रही है,
हरियाली का सबब
बन जाने को
उकसा रही है.

बादल गरज रहे हैं,
बिजली चमक रही है,
बरसात आ रही है,
रिमझिम के तराने,
जीवन-गीत गा रही है,
फैला रही है
उम्मीद का उजाला
हर दिल में
तमन्नाएं जगा रही है.

बाधाओं को पार कर
जल की धाराएं
नदियों का रूप ले
अविरल
बही जा रही है
अपने ईष्ट की ओर
बढ़ी जा रही हैं.
एकबार फिर
तेरी लहरों में समाकर
एकाकार होने जा रही हैं

एकबार फिर
लहरें हुंकार भरेंगी,
तट से लौटकर
अनंत में खो जायेंगी.

चलता रहेगा सदा
यह सर्जना चक्र
मेरे बाहर,
मेरे भीतर
एक अंतहीन द्वंद्व बनकर.

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राजीव कुमार

13 comments:

  1. man ke antardwandvki khoobsorat abhivyakti -
    bahut bahut badhai Rashmi ji -kavita ke chayan ke liye aur
    Rajiv kumar ji -itni sunder abhivyakti ke liye ...!!

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  2. गहरे भावों से आच्‍छादित रचना। आभार इसे पढवाने का।

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    प्रेम रस की तलाश में...।
    ….कौन ज्‍यादा खतरनाक है ?

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  3. saagar se bhi gahri bhaavnaaein hai is kavita mein... khubsurat...

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  4. वाह बहुत ही सुन्दर रचना है.

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  5. सर्जना चक्र तो यूँ ही चलता रहेगा.

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  6. अंतर्मन और बहिर्मन में जो द्वन्द है उसे बखूबी उभरा गया है ...

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  7. अनन्त से अनन्त की ओर का सफ़र चलता ही रहता है…………………बेहद उम्दा अभिव्यक्ति।

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  8. वाह! बहुत बेहतरीन....

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  9. मन के द्वंद्व को प्रकृति के सर्जन चक्र से जोड़ना बहुत खूबसूरत लगा ...सुन्दर प्रस्तुति

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  10. bahut hi gahrayi hai kavita mai
    badhayi

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  11. वाह बहुत ही सुन्दर. खूबसूरत प्रस्तुति.

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  12. एक अंतहीन द्वंद्व बनकर....बहुत खूब राजीव भैया
    आपकी कविता का हर शब्द दिल को छू गया

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