प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त ने मुझे किरणों से बात करना सिखाया , पक्षियों की चहचहाहट में भोर का सन्देश दिया . कक्षा में उनकी रचना ने प्रकृति के मध्य हमें लाकर खड़ा किया और प्रकृति के कण कण में व्याप्त सौन्दर्य की मुखरता से हमें रूबरू किया -
'प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहां, कहां हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने यह गाना?
...
शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।
....
कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनी
बतलाया उसका आना! '
सुकुमार कवि के पूरे व्यक्तित्व में प्राकृतिक संवेदना की कोमलता मिली , जब 1964 में मैं उनसे मिली . रेशम की तरह उनके बाल, एक बार छू लेने का बाल सुलभ ख्याल निःसंदेह सौन्दर्य का आकर्षण था . उनके उठने बैठने मुस्कुराने गुनगुनाने में हवा की मंद चाल सी थी . हाँ तब उस उम्र में ये व्याख्या मेरे पास नहीं थी, ना ही उस व्यक्तित्व की गरिमा के लिए शब्द थे ... पर जो दृश्य आँखों ने कैद किया , उनके छायाचित्र संभाल के रखे ... उम्र के हर पादान पर तस्वीरें मुखर से मुखरतम होती गईं .
'रश्मि प्रभा' - इस नाम ने मुझे वह गौरव दिया , वह पहचान दी - जिसका लेशमात्र भी ख्याल उस उम्र में नहीं आया .उम्र समय की घुमावदार घाटियों से गुजरता गया और मेरे जेहन में इन पंक्तियों का असर हुआ
वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान, उमड़कर आखों से चुपचाप,बही होगी कविता अनजान...
पन्त की इस रचना ने मेरी हर ख़ामोशी को शब्द दिए , बहते आंसुओं से सरगम की धुन आने लगी . ऊँची चारदीवारी में पन्त की रश्मि ने बूंद बूंद में कविता को जन्म दिया -
रात रोज आती है,
हर रात नए सपनों की होती है,
या - किसी सपने की अगली कड़ी.....
मैं तो सपने बनाती हूँ
लेती हूँ एक नदी,एक नाव, और एक चांदनी........
...नाव चलाती हूँ गीतों की लय पर,
गीत की धुन पर सितारे चमकते हैं,
परियां मेरी नाव में रात गुजारती हैं...
पेडों की शाखों पर बने घोंसलों से
नन्ही चिडिया देखती है,
कोई व्यवधान नहीं होता,
जब रात का जादू चलता है.....
ब्रह्म-मुहूर्त में जब सूरज
रश्मि रथ पर आता है-
मैं ये सारे सपने अपने
जादुई पोटली में रखती हूँ...
परियां आकर मेरे अन्दरछुपके बैठ जाती हैं कहीं
उनके पंखों की उर्जा लेकर
मैं सारे दिन उड़ती हूँ,
जब भी कोई ठिठकता है,
मैं मासूम बन जाती हूँ.......
अपनी इस सपनों की दुनिया में मैं अक्सर
नन्हे बच्चों को बुलाती हूँ,
उनकी चमकती आंखों में
जीवन के मतलब पाती हूँ!
गर है आंखों में वो बचपन
तो आओ तुम्हे चाँद पे ले जायें
एक नदी,एक नाव,एक चाँदनी -
तुम्हारे नाम कर जायें.........................
.(रश्मि प्रभा)
और पन्त की रश्मि के नाम स्वप्न नीड़ से
कूक उठी सहसा तरुवासिनी
गाया स्वागत का गाना
सच में , वसीयत इसे कहते हैं .... इस नाम के साथ कवि पन्त ने अपनी अभिप्सित कामना भी मेरे नाम की ----
'अपने उर की सौरभ से
जग का आँगन भर देना ...'
आह्लादित मन सुकुमार कवि से आज भी पूछता है उनके ही शब्दों में---
'बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से ..
गोपन रह न सकेगी
अब यह मर्म कथा
प्राणों की न रुकेगी
बढ़ती विरह व्यथा
विवश फूटते गान प्राणों से
बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से ..
यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से
बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से ..'
रश्मि प्रभा
============================
सुमित्रानंदन पन्त
जब नहीं सह पाया
उनका कोमल मन
जीवन में अपनेपन का आभाव,
एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात,
जब नहीं भाया उन्हें मानव-संसार
जहाँ होती थी सदा खींच-तान
चलती रहती थी हरदम तकरार,
दर्द होने लगा असह्य,अनंत
तो चले गए प्रकृति के पास
पाने को इन सबसे पार..
दर्द के दलदल में खिला कमल
हृदय था जिसका बिलकुल निर्मल .
देवकी नहीं मिली तो क्या ?
प्रकृति रही सदा उनके साथ
यशोदा बनकर,
सहलाती रही उनके कोमल गात,
बहलाती रही बालमन का अकेलापन.
यहीं मिला उन्हें नया जीवन
यहीं आ बसे थे उनके प्राण.
पादप-पुष्प,झरने,नदी ,पहाड़,
जंगल का हरा-भरा संसार
सदा रहते थे उनके उर में,
खग-वृन्द भी करते थे संवाद
सदा अपने स्वर में.
तितलियाँ उड़-उड़ आती थी
बैठकर उड़ जाती थी
मनचाहे फूलों पर,
भंवरे भी मंडराते थे,
लेकर पराग उड़ जाते थे .
जंगल के सब जीव भले थे
लगता मानों एक कोख पले थे.
हरियाली ओढ़े जंगल था ,
हिमाच्छादित पर्वतराज
झरने झर-झर गाते रहते
गीत मिलन के सारी रात.
पेड़ों की झुरमुटों से गुजरती
तेज सरसराती हवाएं
सुनाती थी लोरियां,
सुलाती थी उनके बैचेन मन को
अपने आसमानी आँचल तले
दे-देकर थपकियाँ.
जीवन-यज्ञ सदा चलता था,
जीवन मूल्य यहाँ पलता था.
सबसे सबका सरोकार यहाँ था ,
जीवन-दर्शन आधार यहाँ था.
फूल यहाँ इतराते अपनी सुन्दरता पर
मन बलिहारी जाता कोमल सी काया पर,
जीवन में आनंद भरा था,
फूलों में मकरंद भरा था.
कांटे भी उगते थे वन में,
उनमें भी थी एक कोमलता
स्व-रक्षा में चुभ जाते थे
अफ़सोस किया करते मन में,
उत्सर्ग किया सारा जीवन
जिये सदा बन प्रकृति-दर्पण .
राजीव कुमार
=============================================
सुमित्रानंदन पंत
सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तर प्रदेश के खुबसूरत आँचल के कौसानी गाँव में 20 मई सन 1900 में हुआ था | इनके जन्म के 6 घंटे पश्चात् ही इनके सर से माँ का साया सदा के लिए हट गया | और इनका पालन -पोषण उनकी दादी ने ही किया | इनका नाम गुसाई दत्त रखा गया | इनकी प्रारंभिक शिक्षा - दीक्षा अल्मोड़ा में ही हुई | 1918 में वे अपने मंझले भाई के साथ काशी आ गये वहां वे क्वींस कॉलेज में पढने लगे | वहां से मेट्रिक उतीर्ण करने के बाद वे म्योर कॉलेज इलाहबाद चले गये वहां इंटर तक अध्ययन किया | उन्हें अपना नाम पसंद नहीं था इसलिए उन्होंने अपना नाम बदल कर सुमित्रानंदन पंत रख लिया | 1919 में गाँधी जी के एक भाषण से प्रभावित होकर बिना परीक्षा दिए ही अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रीय हो गये | उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और स्वतंत्र रूप से बंगाली , अंग्रेजी तथा संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया |
प्रकृति की गोद , पर्वतीय सुरम्य वन स्थली में जन्मे और पले होने की वजह से उन्हें प्रकृति से बेहद प्यार था | बचपन से ही वो सुन्दर रचनाएँ लिखा करते थे | सन 1907 से 1918 के काल के स्वयं कवि ने अपने कवि जीवन का प्रथम चरण माना है | इस काल की कवितायेँ वीणा में संकलित हैं | सन 1922 उच्छ्वास और सन 1928 में पल्लव का प्रकाशन हुआ | सन साहित्य और रविन्द्र साहित्य का इन पर बड़ा प्रभाव था | पंत जी का प्रारंभिक काव्य इन्ही साहित्यिकों से प्रभावित था | सुमित्रानंदन पंत जी 1938 ईसवी में कालाकांकर से प्रकाशित ' रूपाभ ' नामक पत्र के संस्थापक भी रहे | सुमित्रानंदन पंत जी की कुछ अन्य काव्य कृतिया हैं ___ ग्रंथि , गुंजन , ग्राम्या , युगांत , स्वर्ण - किरण , स्वर्ण - धूलि , कला और बुढा चाँद , लोकायतन , निदेबरा , सत्यकाम आदि | उनके जीवनकाल में उनकी 28 पुस्तकें प्रकाशित हुई | जिनमें कवितायेँ , पद्य - नाटक और निबंध शामिल हैं | सुमित्रानंदन पंत जी आकाशवाणी केंद्र प्रयाग में हिंदी विभाग के अधिकारी भी रह चुकें हैं | पंत जी जीवन भर अविवाहित ही रहे | हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है की सरस्वती का वरद पुत्र 28 दिसम्बर 1977 की मध्य रात्रि में इस मृत्युलोक को छोड़ कर स्वर्गवासी हो गये |
साहित्यिक विशेषताएं _______ प्राकृतिक सौंदर्य के साथ पंत जी मानव सौंदर्य के भी कुशल चितेरे थे | छाया - वादी दौर के उनके काव्य में रोमानी दृष्टि से मानवीय सौंदर्य का चित्रण है , तो प्रगतिवादी दौर में ग्रामीण जीवन के मानवीय सौंदर्य का यथार्थवादी चित्रण | कल्पनाशीलता के साथ - साथ रहस्यानुभूति और मानवतावादी दृष्टि उनके काव्य की मुख्य विशेषताएं हैं | युग परिवर्तन के साथ पंत जी की काव्य चेतना बदलती रही है | पहले दौर में वे प्रकृति सौंदर्य से अभिभूत छायावादी कवि हैं , तो दुसरे दौर में मानव सौंदर्य की और आकर्षित और समाजवाद आदर्शों से प्रेरित कवि | तीसरे दौर की उनकी कविताओं में नये कविता की कुछ प्रवृतियों के दर्शन होते हैं तो अंतिम दौर में वे अरविन्द दर्शन से प्रभावित कवि के रूप में सामने आते हैं |
काव्यगत विशेषताएं __ भावपक्ष _
प्रकृति _ प्रेम
" छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया |
बाले ! तेरे बाल - जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन |
भूल अभी से इस जग को | "
इन पंक्तियों से ये समझने के लिए काफी है की पन्त जी को प्रकृति से कितना प्यार था | पंत जी को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है | यद्यपि पंत जी की प्रकृति चित्रण अंग्रेजी कविताओं से प्रभावित है फिर भी कल्पना की ऊँची उड़ान है , गति और कोमलता है , प्रकृति का सौंदर्य साकार हो उठता है | प्रकृति मानव के साथ मिलकर एकरूपता प्राप्त कर लेती है और कवि कह उठता है |
' सिखा दो न हे मधुप कुमारि , मुझे भी अपने मीठे गान | '
प्रकृति प्रेम के पश्चात् कवी ने लौकिक प्रेम के भावात्मक जगत में प्रवेश किया | पंत जी ने यौवन के सौंदर्य तथा संयोग और वियोग की अनुभूतियों की बड़ी मार्मिक व्यंजना की है | इसके पश्चात् कवी छायावाद और रहस्यवाद की और प्रवृत हुए और कह उठे ____
" न जाने नक्षत्रों से कौन , निमंत्रण देता मुझको मौन | "
अध्यात्मिक रचनाओं में पंत जी विचारक और कवि दोनों ही रूपों में आते हैं | इसके पश्चात् पंत जी जन - जीवन की सामान्य भूमि पर प्रगतिवाद की और अग्रसर हुए | मानव की दुर्दशा को देखकर कवी कह उठे __
" शव को दें हम रूप - रंग आदर मानव का
मानव को हम कुत्सित चित्र बनाते शव का |"
+ + + +
" मानव ! एसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति |
आत्मा का अपमान और छाया से रति | "
गांधीवाद और मार्क्सवाद से प्रभावित हो पंत जी ने काव्य रचना की है | सामाजिक वैषम्य के प्रति विद्रोह का एक उदाहरण देखिये _
" जाती - पांति की कड़ियाँ टूटे , द्रोह , मोह , मर्सर छुटे ,
जीवन के वन निर्झर फूटे वैभव बने पराभव | "
कला - पक्ष
भाषा __ पंत जी भाषा संस्कृत प्रधान , शुद्ध परिष्कृत खड़ी बोली है | शब्द चयन उत्कृष्ट है | फारसी तथा ब्रज भाषा के कोमल शब्दों को इन्होने ग्रहण किया है | पंत जी का प्रत्येक शब्द नादमय है , चित्रमय है | चित्र योजना और नाद संगीत की व्यंजना करने वाली कविता का एक चित्र प्रस्तुत है |
" उड़ गया , अचानक लो भूधर !
फड़का अपर वारिद के पर !
रव शेष रह गये हैं निर्झर |
है टूट पड़ा भू पर अम्बर ! "
पंत जी कविताओं में काव्य , चित्र और संगीत एक साथ मिल जाते हैं ___
" सरकाती पट _
खिसकती पट _
शर्माती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घाट ? "
बिम्ब योजना ___ बिम्ब कवि के मानस चित्रों को कहा जाता है | कवि बिम्बों के माध्यम से स्मृति को जगाकर तीव्र और संवेदना को बढाते हैं | ये भावों को मूर्त एवं जिवंत बनाते हैं | पंत जी के काव्य में बिम्ब योजना विस्तृत रूप से उपलब्ध होती है |
स्पर्श बिम्ब _____ इसमें कवि के शब्द प्रयोग से छुने का सुख मिलता है __
" फैली खेतों में दूर तलक
मखमल सी कोमल हरियाली | "
दृश्य बिम्ब _____ इसे पढने से एक चित्र आँखों के सामने आ जाता है ____
" मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार - बार
निचे के जल में महकार | "
शैली , रस , छंद , अलंकार ___ इनकी शैली ' गीतात्मक मुक्त शैली ' है | इनकी शैली अंग्रेजी व् बंगला शैलिओं से प्रभावित है इनकी शैली में मौलिकता है वह स्वतंत्र है |
पंत जी के काव्य में श्रृंगार एवं करूँ रस का प्राधान्य है | श्रृगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सुन्दर चित्रण हुआ है | छंद के क्षेत्र में पंत जी ने पूर्ण स्वछंदता से काम लिया है | उनकी परिवर्तन कविता में रोला छंद है _
" लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे | "
तो मुक्त छंद भी मिलता है | ' ग्रंथि ' ' राधिका ' छंद में सजीव हो उठी है ____
" इंदु पर उस इंदु मुख पर , साथ ही | "
पंत जी ने अनेक नवीन छंदों की उदभावना भी की है | लय और संगीतात्मकता इन छंदों की विशेषता है |
अलंकारों में उपमा , रूपक , श्लेष , उत्प्रेक्षा , अतिश्योक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग है | अनुप्रास की शोभा तो स्थान - स्थान पर दर्शनीय है | शब्दालंकारों में भी लय को ध्यान में रखा गया है | शब्दों में संगीत लहरी सुनाई देती है |
" लो , छन , छन , छन , छन
छन , छन , छन , छन
थिरक गुजरिया हरती मन | "
सादृश्य मूलक अलंकारों में पन्त जी को उपमा और रूपक अलंकर प्रिय थे | उन्होंने मानवीकरण और विशेषण - विपर्यय जैसे विदेशी अलंकारों का भी भरपूर प्रयोग किया है |
मीनाक्षी पन्त
मेरा अपना परिचय आप सबसे है जो जितना समझ पायेगा वो उसी नाम से पुँकारेगा हाँ मेरा उद्द्श्ये अपने लिए कुछ नहीं बस मेरे द्वारा लिखी बात से कोई न कोई सन्देश देते रहना है की ज्यादा नहीं तो कम से कम किसी एक को तो सोचने पर मजबूर कर सके की हाँ अगर हम चाहे तो कुछ भी कर पाना असंभव नहीं और मेरा लिखना सफल हो जायेगा की मेरे प्रयत्न और उसके होंसले ने इसे सच कर दिखाया |