पैसे का पेड़ माथे के पसीने से सिंचित होता है
पर अब तो यह बंद हवेलियों में उगता है ...
जब
कोयले की खान से
हीरे निकलने लगते हैं
दो पैर वाले
बैसाखियों के सहारे
चलने लगते हैं
पलक झपकते ही
खेती की ज़मीन पर
भवन खड़ा हो जाता है
ठीक उसी मौसम में
एक विचित्र सा पेड़
उग जाता है ।
यही वह पेड़ है
जिस पर पैसे उगते हैं
इसके आगे बड़े - बड़ों के सर
श्रद्धा से झुकते हैं ।
आम आदमी की
महंगाई से पलीद हो गयी
मिट्टी में यह खूब
फलता - फूलता है
उसकी आँखों से बरसता पानी
सीधे इसकी जड़ों तक
पहुँचता है
चेहरे पर जब रोज़ उसके
हवाइयां उड़ने लग जाती हैं
वही हवा इसके
बढ़ने के बहुत काम आती है ।
उसकी
छटांक भर उम्मीद की
रोशनी से यह
सालों - साल जिंदा रहता है
देश - काल - परिस्थिति
के अनुसार अपना रंग बदल लेता है
इसकी छाया से बड़ी
इसकी माया होती है
इसको पनपने के लिए
ख़ास आबोहवा की
दरकार होती है
उसी के आँगन में पनपता है
जिसकी सरकार होती है ।
शेफाली पाण्डे
उसी के आँगन में पनपता है जिसकी सरकार होती है ...
ReplyDeleteकटु सत्य !
सार्थकता लिये सशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआभार सहित
सादर
सच कहा .. उसी के आँगन में पनपता है जिसकी सरकार होती है ... सार्थकता लिये सशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसत्य को कहती सटीक रचना।
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 18/12/12 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका इन्तजार है
ReplyDeleteअरे वाह रश्मि जी ....
ReplyDeleteमेरी कविता को सम्मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ......
बढ़िया !
ReplyDeleteBahut Khari Khari Rachana , Sadhuwad Swikare !
ReplyDeleteJAY HIND !
शशक्त अभिव्यक्ति है ...
ReplyDelete'पैसे का पेड़' , सच्चाई भरी आभासी कल्पना , बहुत ईमानदारी के साथ लिखा गया है |
ReplyDeleteसादर