जीवन की रस्साकस्सी
और आंतरिक द्वन्द
घर में रहूँ
या जाऊं परदेस !.....
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पश्चिम,
पश्चिम,
पूरब की
रच रहें
द्वन्द,
विचलित है
प्राण |
बाहर
भागूँ,
अन्दर
जागूँ,
है विकट प्रश्न,
मुश्किल
निदान |
कभी
मूल्य को
रखकर
कोने में,
सुख पाऊ
जग का
होने में,
घुटते
अन्तर से
व्यथित हुआ,
कभी
समय बिताऊ
रोने में |
सोचूं
बीते से
बंधा हुआ
मै आज
कहाँ उठ
पाउँगा ?
कल तजा
यदि,
उठ गया भी
जो,
अन्तर को
रौंद
न जाऊंगा ?
कभी,
उन्मुक्त
जीविका
सीखा रही,
पश्चिम की
हवा
सुहाती है,
कभी
सद्चरित्र,
सुगठित रहन,
पुरखो की
मन को
भाती है |
पश्चिम,
पूरब की
खीच तान,
रच रहें
द्वन्द,
विचलित है
प्राण |
बाहर
भागूँ,
अन्दर
जागूँ,
है विकट प्रश्न,
मुश्किल
निदान |
संत कुमार
सामयिक रचना .... !!
ReplyDeleteआज अधिकत्तर लोग इस द्वन्द से परेशान - विचलित हैं !!
द्वंद्व हर जगह ..... द्वंद्वों से घिरे हम...
ReplyDeleteवर्तमान में इसी द्वंद्व से परेशान है बहुत से लोग पर इन हालातों में विवेक से काम लेना चाहिए।
ReplyDeleteअच्छी रचना।
बहुत अच्छी रचना , अगर सभी पंक्तियों को एक साथ भी लिखा गया होता तो भी कविता इतनी ही सुन्दर लगती |
ReplyDeleteसादर