दस दिन हुए
नहीं खायीं तरकारियाँ
स्वाद भूल गया दाल का
भूखा पेट है?
मत रो
मत चिल्ला..
जोर से खखार 
"बीडी" जला!
भूल जा गाँव के खेत
नदी के किनारेऔर
रेत
अम्मा का चश्मा
बिटिया की गुडिया
घरैतिन की चूड़ी 
भूल,
उठ पुल से
हाथगाड़ी खींच
पसीना पोंछ
जोर लगा
"बीडी" जला,
शहर आने को
साहूकार का उधार,
भूल जा 
मर गया बाप बीमार
भूल जा पनघट
डोली
गाँव की गीत गाती 
होली,
शहर के नाले मे कूद
डूब-उफन
कुलमुला...
"बीडी जला"
  • अमित आनंद 

7 comments:

  1. Behad damdaar aur khoobsoorat rachna badhai

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (21-12-2012) के चर्चा मंच-११०० (कल हो न हो..) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

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  3. ऐसे नवयुवको के गाल पर एक बढ़िया तमाचा है जो गाँव में सब कुछ छोड़कर अपने खेतों को संभालने की बजाय शहरी बनने की धुन में अपना सुख चैन ,आत्मसम्मान सब गँवा बैठते हैं उनके लिए बढ़िया सुझाव दिया है बीडी जला फूंक अपना कलेजा

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  4. बीडी जलाने से क्या सभी दुख दुर हो जायेगे?

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  5. हर शहर में ऐसे बीड़ी आश्रित लोगों की एक भारी तादाद मिलती है , परिवार , समाज , खुशियों सब से दूर |

    सादर

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