मौन ही अनमोल है
मौन ही है अनमोल कथा
उसकी जड़ें ही गहरी होती हैं
मौन ही प्रस्फुटित है होता ....
नदी हूँ
मै ...मौन
तटस्थ मन्दिर की सूनी सीढ़ियों का
या
पीपल की घनी बाहों से
झरे
पत्तो की शुष्क अधरों की प्यास लिए
मै बहती हूँ
खुद राह बनाती
तोड़ धरती की पथरीली छाती
मोड़ से हर
आगे बढ़कर
लौट कर
फिर कभी नही आती
नदी हूँ
मै ...मौन
गहराई से मेरा नाता है
सत्य की सतह का स्पर्श
जो नही कर पाता है
उसे इस
जग -जल मे
तैरना कहाँ सचमुच आता है
पारदर्शी देह के कांच में अपने
मौसम के हर परिवर्तन का
अक्श लिये
सोचती हूँ ..
कभी थाम कर
सदैव रहूँ
बादलो के जल -मग्न छोर
धरा के जीवित पाषाणों की
लुभावनी आकृतियों के आकर्षण कों
छोड़
या
वन वृक्षो की जड़ो का
मेरे लिए
मोह का दृड़ नाता तोड़
मै चाहती बहती रहूँ निरंतर
कल कल की धुन की मधुरता
अपने एकांत के वृहत रेगिस्तान मे घोल
समय की नदी हूँ
एक ..मै मौन अनमोल
किशोर कुमार
क्षण क्षण
ReplyDeleteकल कल की धुन की मधुरता
अपने एकांत के वृहत रेगिस्तान मे घोल
समय की नदी हूँ
एक ..मै मौन अनमोल
नदी और स्त्री की कहानी है ना मिलती-जुलती !!
आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 02/01/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteमै चाहती बहती रहूँ निरंतर
ReplyDeleteक्षण क्षण
कल कल की धुन की मधुरता
अपने एकांत के वृहत रेगिस्तान मे घोल
समय की नदी हूँ
एक ..मै मौन अनमोल
इस निरंतरता में ही जीवन का सार है
सादर
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ... आशा है नया वर्ष न्याय वर्ष नव युग के रूप में जाना जायेगा।
ReplyDeleteब्लॉग: गुलाबी कोंपलें - जाते रहना...