शाम खो गई
रातें चलने लगीं मदहोश सड़कों पर
दिनचर्या के मायने ही बदल गए ...
रश्मि प्रभा
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मेरे शहर में
शाम नहीं होती
देखा नहीं किसी नें
ढलते सूरज को
कई बार देखा है ,
ऑफिस से निकलते है
बंधुआ मजदूर
अँधेरे में मुह छिपाए
कंधे झुकाए रोबोट
नशे में डुबो देते है
पूरा दिन और तनाव
पर शाम को तो
उन्होंने भी नहीं देखा
आसमान के रंग
को लेकर अक्सर
बहस छिड़ती है
छ बाय छ के
पिंजरे से कभी
आकाश दिखा नहीं
जो घोसलों को
लौटते है बिना पिए
उनके चूजे भी
सीमेंट में पलते है
सीमेंट में बढ़ते है
शाम को वो भी जानते नहीं
कुछ बूढ़े बाते करते है
गोधूलि बेला की
पर ऐसा कुछ
मेरे शहर में नहीं होता
दिन और रात के सिवा
कुछ नहीं देखा
मेरे शहर में
किसी ने भी
शाम को नहीं देखा
छ बाय छ के
ReplyDeleteपिंजरे से कभी
आकाश दिखा नहीं
गहन अभिव्यक्ति ....
सुंदर रचना ...
सोनल की बेहतरीन रचनाओं में से एक....
ReplyDeleteबधाई सोनल..
आभार दी...
अनु
बहुत अच्छी रचना....
ReplyDeleteजिन शहरों में कभी अँधेरा नहीं होता उन शहरों की एक अँधेरी तस्वीर |
ReplyDeleteसादर