आजकल ....
न तुम, न मैं ... सिर्फ प्रतिस्पर्धा है घरों - दीवारों पर
लम्बी गाड़ियां काले शीशेवाले
टचस्क्रीन मोबाइल
ब्रांडेड कपड़े
प्रसाधनों के बीच असलियत है ही नहीं
हाय ............. अब हम कहाँ और तुम कहाँ !
कुछ घुल गया है पानी में,
है दूषित कर गया
कोई चमन की हवा को
न जाने क्या..शायद कोई
नया रोग सा लगा है
नोचने में कमीजें
एक - दूसरे की
खुश हो रहे हैं
लोग कई
बचने की कोशिश में
जो छुपे किसी के पहलू में
हैं उनकी चादरें
पहले से कालिख में सनी हुईं
जिधर देखो
रंगे सियारों की
फ़ौज सी खड़ी है
किसके साथ खड़ा होऊं?
आज नहीं तो कल ..
रंग तो सबकी उतरी है
काट कर
बांटने में
व्यस्त हैं जोडने वाले
जो हैं समर्थ
ओढ़ कर मुफलिसी
जड़ रखे हैं
खुद के मुंह पर ताले
ऐ खुदा , हे भगवान !
मत हँस..इन गरीबों पर
रहम कर
भेज कोई रसूल अपना
बहुत हो चुका...
अब सब्र नहीं होता ,
खुद से अपनो का इलाज नहीं होता !!
संतोष कुमार
बहुत अच्छी रचना , हरिहरन का एक गाना याद आ गया -
ReplyDeletekrishna ni begane baro .
http://www.youtube.com/watch?v=AjejkI1xZPY
सादर
भेज कोई रसूल अपना
ReplyDeleteबहुत हो चुका...
अब सब्र नहीं होता ,
खुद से अपनो का इलाज नहीं होता !!
कुछ घुल गया है पानी में,
ReplyDeleteहै दूषित कर गया
कोई चमन की हवा को
न जाने क्या..शायद कोई
नया रोग सा लगा है
इस ज़माने को
बिल्कुल सही ...
उत्तम चयन एवं सशक्त प्रस्तुति
आभार आपका
बेहतरीन रचना, आभार
ReplyDeletebahut achhaa lag rahaa hai prakashit rachnaaon ko padh kar aapkee lagn aur karmathtaa ko naman
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteबहुत उम्दा,चयन,,,
ReplyDeleteगहरे भाव्।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
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