'तांडव' क्रोध का ही नहीं होता
शांत, सुकून भरे चेहरे का भी होता है
आँखों से बरसते प्रेम का भी होता है
बिना किसी शस्त्र के
बिना चक्रव्यूह के
बिना किसी छल के ...
सूर्य की तपती हुई
आँखों में आँखें डालकर
मैं अडिग अब भी खड़ी हूँ
वो अलग है भाप बनकर के जली हूँ
समय की वेणी बनाकर
गूंथ ली है भाल में
हाँ सुरभी से बेशक लड़ी हूँ
हर असत की पीठ पर कोड़े लगाकर पल पलक में
किरकिरी बनकर पड़ी हूँ
हाँ अभी मैं अन-लिखी हूँ , अन-पढ़ी हूँ
फिर भी देती हूँ अमावस को चमक में
और पूनम की सदा बन पूनमी बनकर झड़ी हूँ
क्यूंकि मैं एक स्त्री हूँ ...
इसलियें मैं जी रही हूँ
http://gita-pandit.blogspot.in/
'तांडव' क्रोध का ही नहीं होता
ReplyDeleteशांत, सुकून भरे चेहरे का भी होता है
वाह ... बहुत खूब कहा आपने
बेहतरीन प्रस्तुति
उम्दा रचना
ReplyDeleteगहन रचना ...
ReplyDeleteनए शब्दों के साथ स्त्री की व्यथा दर्शायी है |
ReplyDeleteउत्तम प्रस्तुति |
सादर
हृदय से आभारी हूँ रश्मि जी आपकी और
ReplyDeleteइन सभी मित्रों की जिन्होंने मेरी लेखनी को सराहा
बल दिया ..
शुभ-कामनाएँ
आभार रविन्द्र प्रभात जी ...
ReplyDeleteस्त्री की जिजीविषा पर बेहतरीन विचार !
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