कहानी

आवरण / कृष्ण कुमार यादव 
स्नेहा.....स्नेहा....ओ स्नेहा अभी तैयार नहीं हुई क्या, देखो तो शाम के 6 बज चुके हैं और ये मैडम अभी बाथरूम में हैं, अमन उसे छेड़ने के इरादे से बाथरूम का दरवाजा खटखटाता है। अभी आई अमन! प्लीज तुम थोड़ी देर आराम करो, बस मै जल्दी से तैयार हो जाती हूँ। ओ0के0 बाबा! कहता हुआ अमन बेडरूम में आ गया।

हँसती, मचलती, गुनगुनाते हुए स्नेहा बाथरूम से बाहर निकली। आखिर खुशी तो संभाले संभल नहीं रही थी। आज उनकी शादी की सालगिरह जो थी, सो दोनों एक दूसरे को सरप्राइज देने के मूड में थे। अमन ने उसे एक फाइव स्टार होटल में डिनर प्रपोज किया, तो स्नेहा ने बिना बताये चुपके से अमन के लिए गिफ्ट तैयार किया था।

बाथरूम से स्नेहा ने बेडरूम में कदम रखा तो देखा कि अमन बेड पर सोया पड़ा है। स्नेहा ने इसे अमन की एक शरारत समझी और शरारती अंदाज में अमन को बाहों में भर लिया। लेकिन ये क्या, अमन का शरीर तो बिल्कुल ठंडा पड़ा था। स्नेहा को कुछ भी समझ में न आया। अगले ही पल उसने तुरंत अमन की नब्ज देखी और पाया कि अमन उसे छोड़कर जा चुका है। स्नेहा स्तब्ध होकर निःश्वास बस उसे देख रही थी। अमन उसे ऐसे अचानक छोड़कर चला जायेगा, इसकी उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। अमन के सीने पर अपना चेहरा रखकर बेतहाशा काफी देर तक वह रोती रही। आँसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। अब तो एक पल जीवन जीना भी स्नेहा के लिए मुश्किल लग रहा था। अमन के बिना उसके जीवन में बचा ही क्या था? आखिरकार उसने भी अपना जीवन इसी के साथ खत्म करने की सोची कि अचानक उसे अपने पेट में पलने वाले उस नन्हें जान की सुध आयी। .....अरे यह मैं क्या सोच रही थी, ये तो अमन की निशानी है जो हमेशा पास रहेगा। अपने अमन की इस निशानी को मैं कैसे मिटा सकती हूँ। यह विचार आते ही वह फिर से अमन के सीने पर अपना चेहरा रखकर रोने लगी। अमन....अमन......अब मैं कैसे जिऊँगी, तुमने तो पूरा जीवन साथ निभाने का वादा किया था फिर मुझे मझधार में छोड़कर क्यों चले गये? बेसुध सी वह कभी अमन को बेतहाशा चूमती और फिर कभी अपनी चूडि़याँ देखती तो कभी अपना श्रृंगार। आज के दिन को लेकर उसने क्या-क्या सपने संजाये थे, पर एक ही क्षण में सब खत्म हो गया। 


स्नेहा की अभी उम्र ही कितनी थी। उसने तो अभी जीवन के 25 बसंत भी नहीं देखे थे।......एक नौजवान महिला जब विधवा होती है तो समाज उसे किन निगाहों से देखता है, यह उससे छुपा हुआ नहीं था। विधवा होने के नाम पर ही उसके सामने अपनी बुआ का चेहरा घूमने लगा। कितनी प्यारी और हँसमुख थीं बुआ। बात-बात पर खिलखिलाकर हँसना और दूसरों की टांग खीचने में कभी भी पीछे नहीं रहने वाली बुआ से उसने जिन्दगी के कई सबक सीखे थे। जब बुआ की शादी हो गई तो उनसे बिछुड़ने का गम कई दिनों तक सालता रहा। बस खुशी थी तो इस बात की कि फूूफा जी भी उतने ही प्यारे और जिंदादिल थे। बुआ हमेशा कहा करतीं कि मैंने जरूर पिछले जन्म में कुछ अच्छे कर्म किये हैं तभी तो ऐसा पति पाया है।.... पर बुआ की इस प्यारी सी खुशहाल भरी जिंदगी को पता नहीं किसकी नजर लग गई कि सब कुछ एक झटके में खत्म हो गया। फूफा जी एक एक्सीडेण्ट में खत्म हो गये और उन्हीं के साथ बुआ का सब कुछ चला गया। अब बुआ का ख्याल रखने वाला कोई नहीं था पर नसीहतें देने वाले बहुत लोग थे। जो बुआ अपनी चंचलता के लिए जानी जाती थीं, उन पर ही तमाम बंदिशें आरोपित की जाने लगीं - ऐसे कपड़े न पहनो, बेड पर मत सोना, आज खीर मत खाना, शुभ काम में मत आया करो, किसी से बात मत करो, चेहरे पर हँसी मत लाना और भी न जाने कितने बंधन। आखिर इतने बंधनों के बीच कोई जिये भी तो कैसे? इतना ही नहीं रिश्तेदार भी बुआ के विधवा होने का फायदा उठाने के फिराक में लगे रहते थे। बुआ को उन लोगों की बुरी नजर से अपने ऊपर घिन आने लगी थी, अपने आप से उन्हें चिढ़ हो गयी थी......लेकिन ईश्वर की नियति मानकर उन्होंने जीना स्वीकारा। स्नेहा के दिलोदिमाग में बहुत सी बातें कौंध रही थीं। हर छोटी-छोटी बात अपने पति अमन से पूछकर करने वाली स्नेहा एकदम अकेली और असहाय हो गई थी। 

बुआ का चेहरा रह-रह कर उसके सामने आता.....तो क्या मुझे भी इसी तरह जीना होगा? समाज के वहशी दरिंदों से अपने आपको मैं कैसे बचाऊँगी? माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद अमन से लव-मैरिज करने के चलते अपने घर वालों से उसके संबंध नाममात्र के ही रह गये थे। अब वह किसके भरोसे यह जीवन काटेगी? अचानक स्नेहा ने एक अप्रत्याशित निर्णय लिया कि वह अपना शेष जीवन बुआ की तरह नहीं बनने देगी। यह सोचते ही आने वाले दिनों का खाका उसके दिलोदिमाग में उतरने लगा। अगले ही क्षण उसने गाड़ी निकाली और अमन को उसमें लिटाकर, स्वयं ड्राइविंग करते श्मशान घाट पहुँची। अमन के इस तरह चले जाने से और बुआ के बारे में सोचकर दुनिया के रीति-रिवाजों से उसे नफरत सी हो गई थी। साहसिक कदम उठाते हुए उसने अमन के सारे संस्कारों को स्वयं करने का निश्चय किया। संस्कार पूरे करने के ठीक तेरह दिन बाद वह वापस घर पहुँची। यह सब करना एक पत्नी के लिए कितना कठिन होता है, लेकिन स्नेहा ने हिम्मत नहीं हारी। 

अब स्नेहा बिल्कुल ही अकेली हो गयी थी। जिस घर की फिजा में उसके प्यार की गूँज उठती, वही घर अब उसे काटने दौड़ता था। उसने तो बस अपने पेट में पलने वाले अमन की निशानी की खातिर ही इस मौत से भी बद्तर जीवन को चुना था। समाज के मठाधीश और भला यह दुनिया किसी विधवा को कैसे स्वीकार कर सकती है? लोग उससे सिर्फ सवाल करेंगे.....सहानुभूति के नाम पर बुरी नजरें डालेंगे। विधवा को समाज में इस तरह स्वरूपित कर दिया गया है कि कोई पसन्द करने वाला नहीं होगा, सब उससे बचना चाहेंगे। स्नेहा के दिमाग में यही सब उथल-पुथल चल रहा था। वह आने वाले के लिए काफी चिंतित थी.....भला ऐसे में मैं अपने बच्चे की सुरक्षा कैसे कर पाऊँगी, उसे वो सब कैसे मिल पायेगा, जिसका वो हकदार है। अन्ततः स्नेहा ने प्रण किया कि वह अमन के न होने की बात किसी को नहीं बतायेगी। अमन की मौत एक राज की तरह उसके सीने में दफन हो जायेगी। स्नेहा आर्थिक रूप से सक्षम थी और दृढ़-संकल्प भी। एक विधवा होते हुए भी वह इस राज को अपने तक ही रखना चाहती थी। पर उसके दिलोदिमाग में विधवाओं की स्थिति के बारे में सोचकर हमेशा विचलन होती। वह चाहती थी कि कुछ ऐसा करे जिससे विधवायें समाज में इज्जत के साथ जी सकें। उसने अपनी जैसी औरतों को जिन्हें जिल्लत भरी जिंदगी जीने के लिए छोड़ दिया जाता है, जिनके सूने जीवन में कोई रोशनी न देकर और अन्धेरा भर दिया जाता है, के लिए एक विधवा आश्रम बनाने की सोची। पर एक विधवा को भला यह समाज विधवा आश्रम क्यों चलाने देगा? यह सब करने के लिए तो उसे सधवा का ही रूप धारण करना पड़ेगा नहीं तो यह अन्धविश्वासी और पुरूष-प्रधान समाज उसकी राह ही रोक देगा। मन में ऐसा विचार आते ही अपने आँसुओं को वह रोक न सकी कि वह भी अब विधवा बन चुकी है। 

स्नेहा का संकल्प अटल था, अतः अगले ही दिन से वह अपने मिशन में जुट गई। अन्ततः कई दिन की मेहनत और भागदौड़ के पश्चात विधवा आश्रम खोलने का उसका संकल्प पूरा हुआ। अपनी बुआ को उसने विधवा आश्रम के उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया और उन्हीं को सम्मानपूर्वक उस आश्रम की संचालिका भी बना दिया। वक्त का कारवां गुजरता जाता और हर दिन सूरज नई रोशनी लेकर दुनिया में उजियारा फैलाता। स्नेहा को भी धीरे-धीरे अपनी मेहनत सार्थक लगने लगी। जितनी भी लाचार विधवा औरतें उस आश्रम में आतीं उन्हें नवजीवन का एहसास होता। ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस अनमोल जिन्दगी, जिसे मानव ने अपनी सीमाओं में संकुचित कर घृणित रूप दे दिया था का सुख वे फिर से प्राप्त करने लगी थीं। स्नेहा ने इस आश्रम में किसी भी चीज की कमी नहीं रखी। जो स्नेह का भूखा था उसे स्नेह, जो सम्मान का भूखा था उसे सम्मान और जो अंधेरे से परेशान थी उसे नवजीवन का प्रकाश मिला। आश्रम की सब महिलायें स्नेहा को खूब स्नेह और प्यार देतीं तथा फलने-फूलने का आशीर्वाद भी। सबकी आँखों में चमक देखकर स्नेहा को अपने झूठे आवरण को बनाये रखने में कोई बुराई भी नजर नहीं आती। इसी दरम्यान एक दिन आश्रम की एक बुजुर्ग महिला ने बातों ही बातों में उसके उसके पति के बारे में पूछ ही लिया। स्नेहा तो पहले सकपकाई पर अगले ही क्षण बनावटी हँसी के साथ बोली- मेरे पति बिजनेसमैन हैं और कार्य की व्यस्तताओं के चलते वे अक्सर बाहर ही रहते हैं। इतना कहते हुए वह तेजी से बाहर आ गई। 

आज स्नेहा एकदम उदास और एकाकी महसूस कर रही थी। सुबह जगी तो ऐसा लगा मानो अमन ने अभी-अभी उसको प्यार से जगाया हो.....पर सपने तो सपने ही होते हैं। नींद खुलते ही स्नेहा को यथार्थ का अहसास हुआ। सपने में ही सही, पर उस प्यारे से कोमल अहसास को महसूस कर स्नेहा के सब्र का बांध टूट गया। वह बिस्तर पर ही फफक-फफक कर रोने लगी। आखिर आज स्नेहा का जन्म दिन था, फिर अमन कैसे न याद आता। अमन के साथ गुजारे हुए पिछले जन्म-दिन की सारी यादें उसके मनमस्तिष्क को झकझोर रही थीं।.......कहीं शायद इसलिए तो अमन ने सपने में आकर अपने होने का अहसास कराया हो, ऐसा सोचकर वह और भी उदास हो गई। वह जितना ही अपने अतीत को भुलाने की कोशिश करती, वह उतनी ही दृढ़ता से अमन के बहाने उसके समक्ष खड़ा हो जाता। अनमयस्क और बोझिल मन से वह आलमारी की ओर बढ़ी और उसमें रखी अमन की फोटो को देर तक निहारती रही। अतीत की यादें आपस में गुत्थमगुत्था होकर हिलोरें मारतीं और उसी के साथ स्नेहा की आँखों से आँसुओं का सैलाब भी बढ़ता जाता। जल्दी-जल्दी में वह आलमारी यूँ ही खुला छोड़कर बोझिल मन से बाथरूम में चली गई। स्नेहा के बदन पर शावर से गिरता पानी उसके दिलोदिमाग केा ठंडा करने की कोशिश करता। स्नेहा कभी अपने भरे-पूरे बदन को देखती तो कभी थककर शावर के नीचे बैठ जाती। वक्त के तूफानी अंधड़ों ने स्नेहा को असमय ही बुजुर्ग बनाना आरम्भ कर दिया था। 

स्नेहा जब बाथरूम में थी, इसी दौरान आश्रम की एक महिला उससे मिलने आई। आवाज देने पर भी जब स्नेहा नजर नहीं आई तो वह बेडरूम तक चली आई। बेडरूम में ज्यों ही उसकी नजर सामने खुली आलमारी पर पड़ी तो वह चैंक उठी। सामने खुली आलमारी में अमन की तस्वीर रखी हुई थी और उस पर माला चढ़ी हुई थी। उसके दिमाग में बार-बार कौंधने लगा कि जब भी स्नेहा से आश्रम की महिलायें उसके पति अमन से मिलने का अनुरोध करतीं तो स्नेहा किस तरह बात को टाल जाती थी। पता नहीं एक दिन किस भावावेश में स्नेहा ने आश्रम की महिलाओं को अमन की फोटो दिखा दी थी।........पहले तो उस महिला को विश्वास नहीं हुआ, पर जब करीब आकर देखा तो यह वही इंसान था जिसकी स्नेहा ने अपने पति के रूप में फोटो दिखाई थी। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती, तभी स्नेहा बाथरूम से सफेद साड़ी पहन कर निकली। स्नेहा की नजर उस महिला पर पड़ी तो वह अवाक् रह गई। उस महिला को भी सफेद साड़ी और माला चढ़ी फोटो देखकर समझने में कुछ देरी नहीं लगी पर वह इस विरोधाभास का कारण नहीं समझ पा रही थी। आखिरकार उसने स्नेहा से पूछ ही लिया-‘‘यह तो आपके पति अमन जी की फोटो है, फिर उस पर माला कैसी?‘‘ अब स्नेहा के पास छुपाने के लिए कुछ नहीं था। उसे लगा जैसे किसी ने भरे बाजार में उसे नंगा कर दिया हो। 

हारकर स्नेहा को सच्चाई बतानी ही पड़ी। वह महिला कभी स्नेहा का चेहरा देखती तो कभी अमन की फोटो। स्नेहा बोलती जा रही थी - ‘‘तुम तो विधवा हो और एक विधवा का दर्द समझ सकती हो। यह समाज इस बात को क्यों नहीं महसूस करना चाहता है कि पति की मौत पश्चात एक विधवा का सब कुछ तो वैसे ही छिन चुका होता है, फिर ये लोग उसका सहारा बनने की बजाय उसके इज्जत से जीने के हक को क्यों छीनना चाहते हैं ? एक पति के रूप में सहयोगी, भरण-पोषण करने वाला, प्रेम करने वाला, सम्मान देने वाला इंसान जो खुद ही खो चुका है, उस विधवा के जीवन में और क्या शेष रह जाता है, जो यह समाज उससे लेना चाहता है ? जिस क्षण उसे लोगों के स्नेह, ममत्व, अपनत्व की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, लोग उसके बदन पर अपनी निगाहें टिकाये रहते हैं। मानो विधवा का पति के अलावा इस दुनिया में कोई रिश्ता ही नहीं है। माँ-बाप, भाई-बहन सभी बेगाने हो जाते हैं। क्या कोई स्त्री अपनी मर्जी से विधवा होती है, फिर समाज उसे कलंकित क्यों करता है? क्या किसी पुरूष की पत्नी की मौत हो जाने पर उसके साथ भी यही व्यवहार होता है......नहीं, फिर स्त्री के साथ ही ऐसा दोयम व्यवहार क्यों होता है ?‘‘ भावावेश में बहकर स्नेहा की आँखों से झर-झर कर आँसू गिरने लगे थे। ऐसा लगता मानो सब्र का बाँध जो लम्बे समय से रूका पड़ा था अचानक ही टूट गया हो। स्नेहा ने अपना सर उस महिला के कंधे पर रख दिया। वह जोर-जोर से रोती और बोलती की - ‘‘हाँ, मैं एक विधवा हूँ। मेरे पति की मृत्यु काफी पहले हो चुकी है। अमन को मैंने तब खोया था जब अपनी शादी की सालगिरह पर मैं बाथरूम में थी और अमन आॅफिस से लौटकर मेरा इन्तजार कर रहे थे। जब मैं बाहर आई तो मैं अमन को खो चुकी थी। तबसे आज तक मैं नहाने के बाद अपने इस वैधव्य रूप में रहती हूँ। मैं अमन को अब भी महसूस करती हूँ, अमन अब भी मेरे पास है, लेकिन शरीर रूप में नहीं एक अहसास के रूप में, एक सहारे के रूप में। इस दुनिया को यह रूप दिखायी नहीं देता और वो मुझे एक विधवा और लाचार समझकर मेरे साथ न जाने कैसे पेश आती, सो मैंने यह सधवा का आवरण ओढ़ रखा है। मैंने किसी को नहीं बताया कि मैंने अमन को खो दिया है...... नहीं चाहिए थी मुझे किसी की झूठी हमदर्दी। मैंने यह झूठा आवरण सिर्फ अपने आपको इस गंदे समाज की नजरों से बचाने के लिए ओढ़ा है। आज मैं सधवा हूँ तो लोगों ने मेरी सहायता की, मुझे सम्मान की नजरों से देखा। मैंने आश्रम खोलने के लिए इसीलिए सोचा क्योंकि मैं समझ सकती थी कि एक विधवा का जीना कितना मुश्किल होता है। विधवाओं के प्रति समाज की कुत्सित मानसिकता ने मुझे विधवा रूप में सबके सामने आने से रोका। मैंने अपनी पति का दाहसंस्कार सभी रूढि़यों को तोड़ते हुए स्वयं अपने हाथों से किया और वो सब कुछ किया जिससे उनकी आत्मा को शान्ति मिले। अमन के जाने के बाद मैं बेहद अकेली हो गयी थी। मैंने तो अपनी जीवन-लीला भी खत्म करने की सोची लेकिन मेरे पेट में पल रही अमन की निशानी मुझे ऐसा करने से रोक रही थी। मैंने उसी समय निश्चय किया कि मैं किसी भी विधवा के साथ ऐसा दुव्र्यव्यहार नहीं होने दूँगी। इसी निश्चय के साथ मैंने अपने दुख को भूलकर दूसरों के दुखों को कम करने का मन बनाया।‘‘ 


स्नेहा की बातें सुनकर वह महिला भी अपने आँसू न रोक सकी। जिस स्नेहा को वह क्या समझती थी और वह क्या निकली....यह सोचकर उसके आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। रूंधे गले से उसने कहा-‘‘दीदी, आप कितनी महान हैं। दूसरों के दुख को कम करने के लिए आप अपना दुख हंसते-हंसते पी गईं। आपने हम लोगों को हंसाने के लिए, नवजीवन देने के लिए खुद का त्याग कर दिया। हम लोगों को सहारा देने के लिए आप अकेली होकर भी हमारी संबल बनीं। हमारे जीवन के सूनेपन को भरने के लिए आप अकेले ही सूनेपन का सामना करती रहीं।‘‘ दीदी! आपका ऋण तो हम कभी नहीं चुका सकते लेकिन एक वायदा आपसे जरूर करते हैं कि हम आश्रम की सब महिलायें एक ताकत बन कर रहेंगी तथा दूसरे का संबल बनेंगी और आपकी ही तरह दूसरी बहनों को नवजीवन जीने को प्रेरित करेंगी।

आज स्नेहा को अपना मकसद पूरा होते दिखा। उसने महसूस किया कि अब ये बेबस विधवा नहीं रहीं बल्कि अपनी शक्ति को पहचान चुकी सबल नारी हैं, जो इस समाज की कुदृष्टि, अपमान, सहानुभूति के नाम पर छलने का डटकर मुकाबला कर सकती हैं। अपने प्रयास को सार्थक होते देख स्नेहा की आँखें अमन को यादकर छलछला उठीं, उसके प्यार के बगैर यह सम्भव नहीं था।


कृष्ण कुमार यादव

ब्लॉग: http://www.kkyadav.blogspot.in/ (शब्द-सृजन की ओर) 

http://dakbabu.blogspot.in/ (डाकिया डाक लाया) 

6 comments:

  1. बहुत ही अच्‍छी लगी यह कहानी ...
    आभार चयन एवं प्रस्‍तुति के लिए
    सादर

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  2. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (15-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  3. कहानी का विषय जहां बहुत ही संवेदनात्मक है .....वहीँ कहानी के भीतर अमन और स्नेहा की संवेदना खास कर उसे खोने के बाद ..मन को नम कर जाती है .....विचारपरक प्रेरणादायक कहानी ....../ काश वास्तविकता के धरातल पर भी ये सम्भव हो पाए .....तो कितनी आँखें जीवन से चमक उठेगी ..../ बधाई ...कहानीकार को और उम्दा चयन के लिए रश्मि दी को ....

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  4. मेरी कहानी के प्रकाशन के लिए आभार।


    कहानी को पसंद करने और अप सभी की टिप्पणियों के लिए धन्यवाद।

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  5. स्त्री की दृढ़ता की प्रतीक , बहुत अच्छी कहानी |

    सादर

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