कम कम में सृष्टि
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1. एक –
पहले-पहल जब चलना सीखा
और माँ की गोद से उतर
दालान में चिड़ियों को देखा –
अपनी चोंच में तिनका दबाये
घोंसला बुनने में मगन थीं
कभी चोंच से अपने बच्चों को दाना चुगा रही थीं
तो कभी चोंच मारकर अपनी बोली में उसे
फड़फड़ाना, उड़ना-फुदकना सीखा रही थीं
सचमुच इतने कुसमय में भी नहीं बदला
चिड़ियों का प्रेम |
2. दो –
गौर से सुनो और महसूस करो कवि,
रेत के भीतर बह रही पहाड़ी नदी का स्पंदन
कोख में गिरते एक बूँद की हलचल
अंडों के भीतर सुगबुगाते मेमनों की आहट
अपने ही शरीर में कोशिकाओं के टूटने-बनने की क्रियाएँ
मन के किसी कोने रूढ़ हो रहे शब्दों की तड़पन
- फिर एक कविता रचो |
3. तीन –
पहाड़ से उतरती आड़ी-तिरछी ये पगडंडियाँ
नदी तक आते-आते न जाने कहाँ बिला जाती हैं
बलुई नदी पार कर रहे मवेशियों के खुरों की आवाज़
पहाड़ी बालाओं के गीतों के स्वर
गड़ेरियों की बाँसुरी की धुन
माँदर की थाप
जंगली फूलों की गंध
पंछियों का शोर
- ऐसा कुछ भी नहीं जा पाता नदी के उस पार
- घनी आबादी वाले हिस्से में
सिर्फ़ जाते हैं वहाँ
कटे हुए जंगल, कटे हुए पहाड़
और काम की खोज में
पेट की आग लिए पहाड़ी लोग |
4. चार –
पीठ पर लकड़ियों का गट्ठर लादे
कमर कमान-सी झुकी
उस वृद्ध लकड़हारे का रास्ता रोककर
उससे जीवन का रहस्य जानना चाहता हूँ -
न जाने अपने जीवन के कितने वसंत देख चुका
वह बूढ़ा आदमी
लकड़ियों का बोझा धीरे से अपनी पीठ से उतारता है
फिर तनकर एकदम खड़ा हो जाता है
अपना पसीना पोछता है
मुझे देखकर थोड़ा मुसकुराता है
फिर पीठ पर अपना बोझा लाद
पहले की ही तरह झुक जाता है
और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाता है |
5. पाँच –
वे पहले से ज़्यादा मुस्कुराते हैं
मुहल्ले में पहले से ज़्यादा नजर आते हैं
कहीं भी दिखते ही हाथ उठाते हैं
हाथ जोड़ते हैं
घर आते हैं तो सिर्फ़ सादा पानी पीते हैं
न दूध न नींबू -
बहुत आरजू-मिन्नत करने पर अखरा-काली चाय पीते हैं
मगर आजकल बहुत बतियाते हैं
बहुत भरोसा भी दिलाते हैं
फिर चुपके से अपना चुनाव-चिन्ह दिखाते हैं |
सुशील कुमार
फिर पीठ पर अपना बोझा लाद
ReplyDeleteपहले की ही तरह झुक जाता है
और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाता है |
कम कम में सृष्टि !!
बिलकुल कम कम में सृष्टि ......व्यापक दृष्टि
ReplyDeleteघर आते हैं तो सिर्फ़ सादा पानी पीते हैं
न दूध न नींबू -
बहुत आरजू-मिन्नत करने पर अखरा-काली चाय पीते हैं
सार्थक क्षणिकाएँ
ReplyDeleteगौर से सुनो और महसूस करो कवि,
ReplyDeleteरेत के भीतर बह रही पहाड़ी नदी का स्पंदन
कोख में गिरते एक बूँद की हलचल
अंडों के भीतर सुगबुगाते मेमनों की आहट
अपने ही शरीर में कोशिकाओं के टूटने-बनने की क्रियाएँ
मन के किसी कोने रूढ़ हो रहे शब्दों की तड़पन
- फिर एक कविता रचो |
बेहद गहन भाव लिये ... उत्कृष्ट लेखन
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteबहुत अच्छी स्वाभाविक क्षणिकाएँ !:)
ReplyDelete~सादर !
फिर पीठ पर अपना बोझा लाद
ReplyDeleteपहले की ही तरह झुक जाता है
और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाता है |
गहन भाव ....सभी क्षणिकाएँ बढ़िया ...