कब्र में ज़िंदगी के हौंसले नहीं होते…
सरहदों पे यहाँ, घोंसले नहीं होते…

चबा रहे हैं ज़मीं, आसमाँ, फ़िज़ा सारी…
यहाँ इंसान कभी पोपले नहीं होते…

कहीं सूखे में, खाली आसमाँ है और यहाँ…
ये अब्र बाढ़ पर भी खोखले नहीं होते…

क्या चीर फाड़ के भूनोगे, खा भी जाओगे…
अरे इंसान कभी ‘ढोकले’ नहीं होते…

 जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता…
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते…

इस बस्ती में हैं ग़रीब और पास मे ‘मिल’…
यहाँ बच्चे भी कभी तोतले नहीं होते…

ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब…
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…

दिलीप 
http://dilkikalam-dileep.blogspot.in/



9 comments:

  1. मेरे प्रिय कवि की खूबसूरत रचना देखकर हर्षित हूँ ।
    आभार ।

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  2. bahut badhiya ...hakeekat se rubaru karvati post...

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  3. ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब…
    शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…

    बहुत बढ़िया पंक्तियां....

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  4. कमाल की गज़ल है! आनंद आ गया।

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  5. शानदार प्रस्तुति

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  6. बहुत सुन्दर तरीके से लिखी गयी है |

    सादर

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