ख़त्म तो हो ही जाना है एक दिन
उससे पहले कुछ बना लेने की अपनी एक जिद्द है ...
रश्मि प्रभा
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मेरी अपनी एक ज़िद है
रहने की, कहने की
और उस ज़िद का एक फलसफ़ा ।
यूँ तो दर्पण टूट ही जाता है
पर आकृति तो नहीं टूटती न !
उसने मेज पर बैठी मक्खी को
मार डाला कलम की नोंक से
क्या मानूँ इसे ?
विगत अतीत में
दलित हिंसा की जीर्ण वासना का
आकस्मिक विस्फोट ?
पुरुषार्थ क्या इक्के का टट्टू है
असहाय, संकल्पहीन ?
बरज नहीं तो गति कैसी,
विरोध नहीं तो उत्कर्ष कैसा !
प्राण में प्राण भरना
आदत हो गयी है मेरी
वही परिवर्तन
जो प्रकृति में न घटे
तो प्रकृति प्राणहीन हो जाय
साधन कितने बढ़ गये हैं आजकल
रावण के मुख की तरह,
पर मन तो
एक ही था न रावण का !
विविधता का मतलब आत्मघात तो नहीं ?
जिस असंगति पर
उसका खयाल नहीं
मुझे पता है उसका,
यांत्रिक संगति से
काम नहीं होता मेरा,
प्राण-संगीत की लय पर
झूमता है मेरा कंकाल,
जानता हूँ श्रेष्ठतर मार्ग
पर
हेयतर मार्ग पर चलता हूँ ..
क्योंकि
जानता हूँ
कर्म और सिद्धांत की असंगति ।
बस मेरे खयाल में न्याय है
हर किस्म का,
हर मौके,
हर तलछट का न्याय
क्योंकि
न्याय
सामाजिक व्यवस्था से
कुछ ऊपर की चीज है मेरे लिये,
भोग है एक आन्तरिक,
रसानुभूति है !
बस मेरे खयाल में न्याय है
ReplyDeleteहर किस्म का,
हर मौके,
हर तलछट का न्याय
क्योंकि
न्याय
सामाजिक व्यवस्था से
कुछ ऊपर की चीज है मेरे लिये,
भोग है एक आन्तरिक,
रसानुभूति है !
bahut sahi ..likha aapne ..nayi soch nayi baat .
क्योंकि
ReplyDeleteन्याय
सामाजिक व्यवस्था से
कुछ ऊपर की चीज है मेरे लिये,
भोग है एक आन्तरिक,
रसानुभूति है !
सार्थकता लिये सशक्त पंक्तियां
आभार
बस मेरे खयाल में न्याय है
ReplyDeleteहर किस्म का,
हर मौके,
हर तलछट का न्याय
क्योंकि
न्याय
सामाजिक व्यवस्था से
कुछ ऊपर की चीज है मेरे लिये,
भोग है एक आन्तरिक,
रसानुभूति है !
न्याय ??
शुभकामनायें !!
आपकी पूरी कविता ही बहुत सुन्दर है , लेकिन "पुरुषार्थ क्या इक्के का टट्टू है" , इस पंक्ति के लिए ही आपको लाखों बधाई |
ReplyDeleteसादर
मेरी खुद की प्रिय कविताओं में है यह कविता! इसे यहाँ देखना अच्छा लग रहा है। आभार।
ReplyDeleteकहना आवश्यक हो जाता है। बहुत ही सुन्दर कविता।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रेरक रचना ...
ReplyDeleteप्रस्तुति हेतु आभार !