देर ही सही
नींद खुली तो सही
एक लड़की की बाह्य मौत में
उसकी आंतरिक शक्ति को अपनी एकता सबने दे ही दी ...
यह संयोग की ही बात है कि बिहार की साहसी बेटी अनायास ही पूरे भारत की चहेती बेटी बन गयी। आज पूरा देश चिंतित है फ़िजियोथेरेपिस्ट कुमारी दामिनी के लिये ......लोग आन्दोलित हो रहे हैं। भारत की राजधानी में प्रदर्शन हो रहे हैं। प्रदर्शनकारियों के गुस्से का समर्थन कर रही हैं दिल्ली की मुख्य मंत्री और उनके सांसद बेटे। पुलिस अपने परम्परागत तरीके से उत्पीड़न में आनन्द लेने के अवसर से चूकना नहीं चाहती ...ब्रिटिश युग के तरीके आज भी भारत में अस्तित्व में हैं ....यह पूरी दुनिया को देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है। कल सुबह से दिक्षित परिवार के माँ-बेटे के वक्तव्य प्रसारित होते रहे ...कि लोगों का गुस्सा जायज़ है ...कि पुलिस को सब्र से काम लेना चाहिये .....कि कानून में परिवर्तन की ज़रूरत है .....कि वर्तमान कानून लोगों को न्याय दिलाने में समर्थ नहीं है ...। दूसरी ओर इन वक्तव्यों से पूरी तरह निर्लिप्त पुलिस प्रदर्शनकारी लड़के-लड़कियों पर अपराधियों की तरह लाठियाँ भाँजती रही।
इस बीच पूर्वांचल से समाचार आया कि बलात्कार का विरोध करने वाले एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी। मुझे याद है, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब होश सम्भाला तो मेरठ की माया त्यागी काण्ड से दहला हुआ दिल आज इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक भी शांत होने का नाम नहीं ले रहा। बलात्कार और पुलिसिया उत्पीड़न की घटनाओं का यह सिलसिला स्वतंत्र भारत की एक त्रासदी बन चुका है। बलात्कार की न जाने कितने घटनायें आये दिन होती रहती हैं। पूरे देश में पच्चानवे हज़ार यौनौत्पीड़न के वाद न्यायालयों में लम्बित हैं। अधिकांश घटनाओं में अपराधी बिना सजा पाये मुक्त हो जा रहे हैं। यह जनमानस को उद्वेलित करने के लिये बहुत है।
भारत वह देश है जिसका इतिहास स्त्री सम्मान की वकालत के लिये पूरे विश्व में विख्यात रहा है। प्राचीन भारत की यह वह परम्परा है जिसने पिता की अपेक्षा माँ को समाज में अधिक सम्मान देने की घोषणा की। इसी परम्परा ने कन्याओं को नवरात्रि के दिनों में देवी का प्रतीक स्वीकारते हुये पूज्यनीय बनाया। इसी परम्परा ने आधुनिक विश्व के विकसित देशों से पहले भारत की स्त्रियों को समान अधिकार प्रदान किये। यही वह देश है जहाँ आज भी विश्व के किसी भी देश की अपेक्षा विवाह-विच्छेद के कानून सर्वाधिक कड़े हैं। फिर ऐसा क्यों है कि आज उसी भारत के लोग अपने पड़ोसी की बेटियों के सम्मान के प्रति इतने निस्पृह हो गये हैं। यौन उत्पीड़क निर्भय हो विचरने के लिये स्वतंत्र हैं। कोई किशोरी जब तक स्कूल से वापस नहीं आ जाती माँ-बाप के दिल बेचैन बने रहने के अभ्यस्त हो गये हैं। स्त्रियाँ अपने पड़ोस में भी जाने से डरने लगी हैं।
निश्चित ही हमारे नैतिक मूल्यों में हुआ पतन इन सारी स्थितियों के लिये उत्तरदायी है। किंतु तब प्रश्न यह उठता है कि समाज में एक सुव्यवस्था बनाये रखने का उत्तरदायित्व किसका है? हम आत्मनियंत्रित समाज की कल्पना भर सकते हैं। किंतु समाज कभी ऐसा हो नहीं पाता। ऐसा हो नहीं पाता इसीलिये किसी शासन/प्रशासन की आवश्यकता होती है। किंतु दुर्भाग्य से हमारा शासन/प्रशासन घोटाला अपसंस्कृति से ग्रस्त हो चुका है, कहीं किसी प्रकाश की कोई किरण नज़र नहीं आती। पूरा देश स्त्री सुरक्षा के लिये चिंतित और आन्दोलित हो रहा है। देश की बेटी दामिनी जीवन और मृत्यु के बीच झूल रही है। एक सप्ताह में उसके छोटे-बड़े कुल नौ ऑप्रेशन हो चुके हैं अभी तक। उसकी आँत को निकलना पड़ा है, उसे नैज़ल फ़ीड भी नहीं दिया जा सकता। वह जीवन रक्षक प्रणाली के सहारे किसी तरह साँसें भर ले पा रही है। दूसरी तरफ़ सरकार के ज़िम्मेदार लोग अभी तक कोई ऐसी पहल कर पाने में असमर्थ रहे हैं जिससे आम जनता शांत हो सके। आज एक सप्ताह से भी अधिक दिन बीत जाने के बाद पूरा देश निराशा में डूबा हुआ है। मुख्यमंत्री के वक्तव्य उन्हें "भीड़ के साथ खड़ी" दिखाते हैं, ऐसा लगता है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री ख़ुद दिल्ली की सल्तनत के तौर-तरीकों के ख़िलाफ़ हैं। तब प्रश्न यह है कि दिल्ली की सल्तनत पर आज क़ाबिज़ है कौन? मुख्यमंत्री इतनी असहाय क्यों हैं? सल्तनत के मातहत अधिकारी अपने हुक्मरानों के ख़िलाफ़ कैसे जा सकते हैं? यह कैसा शासन-प्रशासन है? या कि सारा ठीकरा पुलिस के सर पर फोड़ कर ख़ुद को बचाने की नाकाम कोशिश की जा रही है?
लोग यौनोत्पीड़कों को मृत्यु दण्ड देने से कम की बात पर तैयार नहीं। पर जरा गम्भीरता से विचार किया जाय तो जनता की यह माँग भावना और उत्तेजना के वशीभूत है। वस्तुतः विचार इस बात पर किया जाना है -
1- कि दर्ज़ होने वाले केसेज में अधिकांश अपराधी मुक्त क्यों हो जाते हैं?
2- निर्णय में इतना विलम्ब क्यों होता है?
3- वर्तमान कानून में क्या ख़ामियाँ हैं?
4- क्या यौनोत्पीड़न के लिये वर्तमान दण्ड व्यवस्था अपर्याप्त है?
5- यौनोत्पीड़न की सभी घटनाओं में से मात्र कुछ घटनाओं की ही रिपोर्ट क्यों दर्ज़ हो पाती है? वास्तविक घटनाओं और दर्ज़ घटनाओं के बीच यह अंतर क्यों है?
दण्डविधान पर चर्चा करने से पहले न्याय तक पहुँचने के मार्ग पर चर्चा करना आवश्यक है। बात शुरू होती है घटना के बाद की न्यायिक प्रक्रियाओं से जो प्रारम्भ होती हैं पुलिस इंवेस्टीगेशन से। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु है जिसकी प्रायः उपेक्षा की जाती है। पुलिस इंवेस्टीगेशन अधिकारी की तकनीकी और कानूनी ज्ञान में दक्षता, साक्ष्य संग्रह में दक्षता और तकनीकी साधनों की उपलब्धता, उसकी ईमानदारी, अपने उत्तरदायित्वों के प्रति निष्ठा, राजनीतिक दबाव ..आदि ऐसे कुछ कारण हैं जिन पर इंवेस्टीगेशन की सत्यता निर्भर करती है। मृत्युदण्ड का कानून बना देना पर्याप्त नहीं, पर्याप्त है दण्ड तक अपराधी को पहुँचाने का मार्ग। इसलिये पुलिस इंवेस्टीगेशन की प्रक्रिया पर सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
आम जनता के सहयोग और उसकी अपनी अंतरात्मा की जागृति की नैतिक बात अभी हम नहीं करेंगे। फाँसी की बात पर विचार करते हैं। किसी स्त्री के साथ यौनोत्पीड़न और क्रूरता एक ऐसा अमानवीय कुकृत्य है जिसकी जघन्यता की तुलना किसी अन्य अपराध से नहीं की जा सकती। मृत्युदण्ड भी इस अपराध के लिये बहुत न्यून दण्ड है। यूँ भी मृत्यु तो भवसागर से मुक्ति का सहज उपलब्ध साधन है ...दण्ड नहीं। इसलिये मृत्युपर्यंत कठोर सश्रम कारावास के साथ-साथ प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व के दिनों में बलात्कार के इन सज़ायाफ़्ता लोगों की अपने-अपने जिलों में हथकड़ी-बेड़ी के साथ सार्वजनिक परेड की सज़ा से ही हमें संतोष करना पड़ेगा।
डॉ कौशलेन्द्र
शानदार लेखन,
ReplyDeleteजारी रहिये,
बधाई !!!
सामायिक सार्थक आलेख
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
सार्थक आलेख ! क़ानून में तो संशोधन जब होंगे तब ही हो पायेंगे तब तक बलात्कार के दोषी व्यक्तियों का पूर्णत: सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाना चाहिए और उनके सारे बुनियादी अधिकार छीन लिए जाने चाहिए ! जब समाज से तिरस्कार और अपमान झेलना पडेगा और हर जगह उनका प्रवेश निषिद्ध होगा तब शायद उन्हें पछतावा हो अपने किये पर !
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ReplyDelete@पूर्णत: सामाजिक बहिष्कार|
ReplyDeleteयह समाज की अंतरात्मा की बात है। कदाचित कुछ सीमा तक ऐसा होता भी होगा, किंतु उन यौन अपराधियों का सामाजिक बहिष्कार कैसे हो सकेगा जो संसद में आदरणीय जी बनकर बैठे हुये हैं? यौन अपराधी को संसद तक पहुँचाने वाली जनता से क्या अपेक्षा की जाय? इतने हो-हल्ला के बाद भी यौन अपराधों पर अंकुश नहीं लग सका है। कौन हैं ये यौन अपराधी? हमारे ही बीच के लोग तो! समाज के इस अधोपतन के लिये हम स्वयं भी बहुत ज़िम्मेदार हैं। सच तो यह है कि हमें आत्म निरीक्षण के साथ-साथ वैचारिक क्रांति के लिये भी चरणबद्ध तरीके से तैयार होना पड़ेगा।
हर व्यक्ति को गम्भीरता से लेना होगा इस विषय को, हर छेड़छाड़ की घटना का स्पष्ट विरोध।
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