1. दुनिया की भागमभाग,बदलते परिवेश 
अजनबी रास्ते और चेहरे ....
कुछ भूल गए कुछ याद रहा 



रश्मि प्रभा 
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बहुत दिन हुए 
जब आखिरी बार 
चिड़िया चहचहाई थी,
पौधों में नई कोंपलें आईं थीं
सोंधी हवा चली थी,
आम बौराए थे और टपका था महुआ,
भोर होते ही बोले थे मुर्गे 
और किसान गया था खेत सींचने 
पूस की रात में  
ठण्ड में जलाये हुए कौड़ा
गांव में छप्पर के नीचे 
आग तापे थे हम !
बहुत दिन हुए 
जब आखिरी बार 
माँ चौके पर बैठी थीं
घी का मर्तबान लेकर 
और उड़ेल दिया था 
ढेर सारा घी दाल मे, 
ना-ना करते-करते !
याद नहीं आता  
पिछली बार कब खाया था 
चने का साग 
और जोंधरी की रोटी 
या कडुवे तेल से चुपड़ी 
धनियहा-नमक के साथ ! 
बहुत दिन हुए 
आम,जामुन या बैर पर 
निशाना साधते पत्थर मारे,
चने का झाड़ उखाड़े 
और निमोना चबाये,
खेत में घुसकर
तोड़े हुए गन्ने !
याद नहीं रहा 
कब जिए थे अपनी मर्ज़ी से 
खुली हवा में साँस ली थी 
और साइकिल में चलते हुए 
दोनों हाथ छोड़कर 
कब गुनगुनाये थे !
अब कुछ भी याद नहीं रहा,
बहुत दिन हुए
घर में रहे हुए 
ज़िन्दगी से मिले हुए !




संतोष त्रिवेदी 

9 comments:

  1. sach may zindagi ki bhagambhag may hum kab sahi mayenay may jeena bhul jate hain pata hi nahi chalta

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  2. अब कुछ भी याद नहीं रहा,
    बहुत दिन हुए
    घर में रहे हुए
    ज़िन्दगी से मिले हुए !
    मुझे भी !! तीन साल या तीस साल .....

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  3. अच्‍छा लगता है शांत दिखना
    पर कितना मुश्किल होता है
    भीतर से शांत होना
    उतनी ही उथल-पुथल
    उतनी ही भागमभाग
    जितनी हम
    किसी व्‍यस्‍त ट्रैफि़क के
    बीच खुद को खड़ा पाते हैं
    ...
    बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति

    आभार सहित

    सादर

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  4. अब कुछ भी याद नहीं रहा,
    बहुत दिन हुए
    घर में रहे हुए
    ज़िन्दगी से मिले हुए !sach kaha supeb post

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  5. सुंदर रचना ...पढ़ी थी संतोष जी के ब्लॉग पर ...

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  6. वाकई समय के साथ सब कुछ धुंधला जाता है...
    बेहतरीन रचना....

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  7. ये तो टटका माल है !

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  8. संतोष जी को बहुत बहुत बधाई , बहुत कुछ याद दिला दिया आपने तो |
    जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला.......

    सादर

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