अब ..... मुक्त है, खुश है ...


रश्मि प्रभा 
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पहली नज़र में वो सिर्फ एक खाट थी.खाली.पर जैसे जैसे नज़दीक जाना हुआ, पता चला कोई बूढी उस पर लेटी है.उस छोटी सी खाट पर भी उसकी उपस्थिति अपने आप दर्ज़ नहीं होती थी. उसे चिन्हित करना पड़ता था.अपनी जीर्ण ओढनी के अलावा वो सूखे हाड़ की छोटी सी पोटली भर थी.यद्यपि ये शक बराबर बना रहता था कि फटी ओढनी के अलावा वो कुछ भी शेष नहीं है और हवा ही उसके आकार की शक्ल में कहीं टिकी रह गयी है. बस,समीपस्थ वातावरण के बारीक बने संतुलन में नोक भर के  बिगड़ाव मात्र से   सिर्फ ओढनी ही हाथ रह जानी है.घरवालों का कहना था कि बूढी दादी कई दिनों से अन्न नहीं ले रही है. एक लंबी यात्रा रही है दादी की,और अब चारपाई पर ‘हथेली भर दादी’ को देखकर लगता है कि जिम्मेदारियों का भी अपना आयतन होता है जिनकी वज़ह से दादी कम से कम तब तो ज़मीन पर ज़रूरी जगह घेरे ही होगी जब गृहस्थी का गोवर्धन उसके सर पर था.अब जब वो चारपाई पर है और वो खुद किसी की ज़िम्मेदारी भर है तो उसकी उपस्थिति को ढूँढना भी भारी पड़ रहा है.

बरसों पहले वो जब शादी करके आई थी,खुद वो कहती है कि उसकी शादी को ‘जुग भव’ बीत गए, तब वो कुछ बर्तन, कपड़े और चांदी के थोड़े गहने लेकर आई थी.इस घर में पतली नोकदार नाक और थोडा गोरा रंग भी वो ही लाई थी.साथ ही हथेली पर आने वाली खुजली और हल्का दमा भी.
अपना नाक, रंग और सुहाती खुजली उसने कुछ हद तक अपने पोते-पोतियों, एक बेटी और दोहिते को भी दी है.

अपने सक्रिय बुढापे के दिनों में वो दो बार खुश हुई थीं. पहली बार तीर्थ से लौटते वक्त दिल्ली में क़ुतुब मीनार देखकर और दूसरी बार बहरे होते कानों के लिए मशीन पाकर. उसके लंबे वैधव्य में ये खुशियां विशुद्ध और पूर्णतः अमिश्रित थीं.ज़रूर इनका आयतन भी उसके आकार में भराव देता होगा.

अब चारपाई को खड़ा कर दिया गया है.उसकी जीर्ण ओढनी धरती पर है.हवा जो उसके आकार में बंधी थी, बिखर गयी है...

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संजय व्यास 
http://sanjayvyasjod.blogspot.in/

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